कौन थी वह???
भादों का महीना. काली अँधियारी रात. कभी-कभी रह-रहकर हवा का तेज झोंका आता था और आकाश में रह-रहकर बिजली भी कौंध जाती थी. रमेसर काका अपने घर से दूर घोठे पर मड़ई में लेटे हुए थे. रमेसर काका का घोठा गाँव से थोड़ा दूर एक गढ़ही(तालाब) के किनारे था. गढ़ही बहुत बड़ी नहीं थी पर बरसात में लबालब भर जाती थी और इसमें इतने घाँस-फूँस उग आते थे कि डरावनी लगने लगती थी.
इसी गढ़ही के किनारे आम के लगभग 5-7 मोटे-मोटे पेड़ थे, दिन में जिनके नीचे चरवाहे गोटी या चिक्का, कबड्डी खेला करते थे और मजदूर या गाँव का कोई व्यक्ति जो खेत घूमने या खाद आदि डालने गया होता था आराम फरमाता था.
धीरे-धीरे रात ढल रही थी पर हवा का तेज झोंका अब आँधी का रूप ले चला था. आम के पेड़ों के डालियों की टकराहट की डरावनी आवाज उस भयंकर रात में रमेसर काका की मड़ई में बँधी भैंस को भी डरा रही थी और भैंस डरी-सहमी हुई रमेसर काका की बँसखटिया से चिपक कर खड़ीं हो गई थी. रमेसर काका अचानक सोए-सोए ही हट-हट की रट लगाने लगे थे पर भैंस अपनी जगह से बिना टस-मस हुए सिहरी हुई हटने का नाम नहीं ले रही थी.
रमेसर काका उठकर बैठ गए और बैठे-बैठे ही भैंस के पेट पर हाथ फेरने लगे. भैंस भी अपनापन पाकर रमेसर काका से और सटकर खड़ी हो गई. रमेसर काका को लगा कि शायद भैंस को मच्छर लग रहे हैं इसलिए बैठ नहीं रही है और बार-बार पूँछ से शरीर को झाड़ रही है. वे खड़े हो गए और मड़ई के दरवाजे पर रखे धुँहरहे(मवेशियों को मच्छर आदि से बचाने के लिए जलाई हुई आग जिसमें से धुँआ निकलकर फैलता है और मच्छर आदि भग जाते हैं) पर थोड़ा घांस-फूंस रखकर मुँह से फूंकने लगे.
रमेसर काका फूँक मार-मारकर आग तेज करने लगे और धुंआ भी बढ़ने लगा। बार-बार फूँक मारने से अचानक एक बार घांस-फूँस जलने लगी और मड़ई में थोड़ा प्रकाश फैल गया। उस प्रकाश में अचानक रमेसर काका की नजर उनकी बंसखटिया पर पड़ी। अरे उनको तो बँसखटिया पर एक औरत दिखाई दी। उसे देखते ही उनके पूरे शरीर में बिजली कौंध गई और इसके साथ ही आकाश में भी बिजली कड़की और एक तेज प्रकाश हुआ।
रमेसर काका डरनेवालों में से तो नहीं थे पर पता नहीं क्यों उनको आज थोड़ा डर का आभास हुआ। पर उन्होंने हिम्मत करके आग को और तेज किया और उसपर सूखा पुआल रखकर पूरा अँजोर(प्रकाश) कर दिया। अब उस पुआल के अँजोर में वह महिला साफ नजर आ रही थी, अब रमेसर काका उस अंजोर में उस औरत को अच्छी तरह से देख सकते थे।
रमेसर काका ने धुँहरहे के पास बैठे-बैठे ही जोर की हाँक लगाकर पूछा, ''कौन है? कौन है वहाँ?"
पर उधर से कुछ भी प्रतिक्रिया न पाकर वे सन्न रह गए. उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि अब क्या करना है. वे मन ही मन कुछ बुदबुदाए और उठकर खड़े हो गए. उनके पैर न आगे अपनी खाट की ओर ही बढ़ रहे थे और ना ही मड़ई के बाहर ही.
अचानक खाट पर बैठी महिला अट्टहास करने लगी. उसकी तेज, भयंकर, डरावनी हँसी ने उस अंधेरी काली रात को और भी भयावह बना दिया. रमेसर काका पर अब सजग हो चुके थे. उन्होंने अब सोच लिया था कि डरना नहीं है क्योंकि अगर डरा तो मरा.
रमेसर काका अब तनकर खड़े हो गए थे. उन्होंने मड़ई के कोने में रखी लाठी को अपने हाथ में ले लिया था. वे फिर से बोल पड़े, "कौन हो तुम? तुमको क्या लगता है, मैं तुमसे डर रहा हूँ??? कदापि नहीं.' और इतना कहते ही रमेसर काका भी हा-हा-हा करने लगे। पर सच्चाई यह थी कि रमेसर काका अंदर से पूरी तरह डरे हुए थे। रमेसर काका का वह रूप देखकर वह महिला और उग्र हो गई और अपनी जगह पर खड़ी होकर तड़पी, "तूँ...डरता नहीं...है.SSSSSSSS न..बताती हूँ मैं तुझे." रमेसर काका को पता नहीं क्यों अब कुछ और बल मिला और डर और भी कम हुआ. वे बोल पड़े, "बता, क्या करेगी तूँ मेरा? जल्दी यहाँ से निकल नहीं तो इस लाठी से मार-मारकर तेरा सिर फोड़ दूँगा." इतना कहते ही रमेसर काका ने अपनी लाठी तान ली.
महिला चिल्लाई, "तूँ मुझे मेरे ही घर से निकालेगा? अरे मेरा बचपन बीता है इस मड़ई में. यह मेरा घर है मेरा. मैं बरसों से यहीं रहते आ रहीं हूं. पर पहले तो किसी ने कभी नहीं भगाया. यहाँ तक कि भइया (कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में पिताजी को भइया भी कहते हैं)ने भी." अब पता नहीं क्यों रमेसर काका का गुस्सा और डर दोनों शांत हो रहे थे. उनको अब लग रहा था कि उनके सामने जो महिला खड़ी है उसको वे जानते हैं, उसकी आवाज पहचानते हैं.
रमेसर काका अब लाठी पर अपने शरीर को टिका दिए थे और दिमाग पर जोर डालकर यह सोचने की कोशिश करने लगे कि यह कौन है? और अगर पहचान की है तो यह चुड़ैल के रूप में भयंकर, विकराल चेहरेवाली क्यों है? ओह तो यह बलेसरा बहिन (बहन) है क्या? अचानक उनके दिमाग में कौंधा. नहीं-नहीं बलेसरा बहिन नहीं हो सकती. उसे तो मरे हुए पच्चीसो साल हो गए. अब रमेसर काका अपने अतीत में जा चुके थे. उनको सबकुछ याद आ रहा था. उस समय उनकी बलेसरा बहिन 12-14 साल की थीं और उम्र में उनसे 3-4 साल बड़ी थी. चारा काटने से लेकर गोबर-गोहथार करने में दोनों भा-बहिन साथ-साथ लगे रहते थे. एक दिन दोपहर का समय था और इसी गड़ही पर इन्हीं आमों के पेड़ों पर गाँव के कुछ बच्चे ओल्हा-पाती खेल रहे थे. बलेसरा बहिन बंदरों की भांति इस डाली से उस डाली उछल-कूद कर रही थी. नीचे चोर बना लड़का पेड़ों पर चढ़े लड़के-लड़कियों को छूने की कोशिश कर रहा था. अचानक कोई कुछच समझे इससे पहले ही बलेसरा बहिन जिस डाली पर बैठी थी वह टूट चुकी थी और बलेसरा बहिन औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ी थीं. सभी बच्चों को थकुआ मार गया था और जबतक बड़ें लोग आकर बलेसरा बहिन को उठाते तबतक उसकी इहलीला समाप्त हो चुकी थी.
रमेसर काका अभी यही सब सोच रहे थे तबतक उन्हें उस औरत के रोने की आवाज सुनाई दी. बिलकुल बलेसरा बहिन की तरह. अब रमेसर काका को पूरा यकीं हो गया था कि यह बलेसरा बहिन ही है. रमेसरा काका अब ये भूल चुके थे कि उनकी बहन मर चुकी है वे दौड़कर खाट के पास गए और बलेसरा बहिन को अंकवार में पकड़कर रोने लगे थे. उन्हें कुछ भी सूझ-बूझ नहीं थी. सुबह हो गई थी और वे अभी भी रोए जा रहे थे. तभी उधर कुछ लोग कुछ काम से आए और उन्हें रमेसर काका के रोने की आवाज सुनाई दी. उन्होंने मड़ई में झाँक कर देखा तो रमेसर काका एक महिला को अँकवार में पकड़कर रो रहे थे.
उस महिला को देखते ही ये सभी लोग सन्न रह गए क्योंकि वह वास्तव में बलेसरा ही थीं जो बहुत समय पहले भगवान को प्यारी हो गई थीं. धीरे-धीरे यह बात पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई और उस गड़ही पर भीड़ लग गई. गाँव के बुजुर्ग पंडीजी ने कहा कि दरअसल बलेसरा जब मरी तो वह बच्ची नहीं थी, उसकी अंतिम क्रिया करनी चाहिए थी पर उसे बच्ची समझकर केवल दफना दिया गया था और अंतिम क्रिया नहीं किया गया था. उसकी आत्मा भी भटक रही है.
लोग अभी आपस में बात कर ही रहे थे तभी रमेसर काका बलेसरा बहिन के साथ मड़ई से बाहर निकले. बलेसरा गाँव के लोगों को एकत्र देखकर फूट-फूटकर रोने लगी थी. सब लोग उसे समझा रहे थे पर दूर से ही. रमेसर काका के अलावा किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह बलेसरा के पास जाए.
बलेसरा अचानक बोल पड़ी, ""हाँ यह सही है कि मैं मर चुकी हूँ. पर मुझसे डरने की आवश्यकता नहीं है. मैं इसी गाँव की बेटी हूँ पर आजतक भटक रही हूं. मेरी सुध कोई नहीं ले रहा है. मैं इस गड़ही पर रहकर अन्य भूत-प्रेतों से अपने गाँव के लोगों की रक्षा करती हूँ. मैं नहीं चाहती हूँ कि इस गड़ही पर, इन आम के पेड़ों पर अगर कोई गाँव का व्यक्ति ओल्हा-पाती खेले तो उसे किसी भूत का कोपभाजन बनना पड़े. इतना कहने के बाद बलेसरा रोने लगी और रोते-रोते बोली, "मुझे एक प्रेत ने ओल्हा-पाती खेलते समय धक्का दे दिया था."
आगे बलेसरा ने जो कुछ बताया उससे लोगों के रोएं खड़े हो गए.....बलेसरा ने क्या-क्या बताया इसे जानने के लिए इस कहानी की अगली कड़ी का आपको इंतजार करना पड़ेगा. आखिर वो प्रेत कौन था जिसने बलेसरा को धक्का दिया था. इन बूत-प्रेतों की दुनिया कैसी है? यह सब जानने के लिए इस कहानी की अगली कड़ी का इंतजार करें...............नमस्कार.
इसी गढ़ही के किनारे आम के लगभग 5-7 मोटे-मोटे पेड़ थे, दिन में जिनके नीचे चरवाहे गोटी या चिक्का, कबड्डी खेला करते थे और मजदूर या गाँव का कोई व्यक्ति जो खेत घूमने या खाद आदि डालने गया होता था आराम फरमाता था.
धीरे-धीरे रात ढल रही थी पर हवा का तेज झोंका अब आँधी का रूप ले चला था. आम के पेड़ों के डालियों की टकराहट की डरावनी आवाज उस भयंकर रात में रमेसर काका की मड़ई में बँधी भैंस को भी डरा रही थी और भैंस डरी-सहमी हुई रमेसर काका की बँसखटिया से चिपक कर खड़ीं हो गई थी. रमेसर काका अचानक सोए-सोए ही हट-हट की रट लगाने लगे थे पर भैंस अपनी जगह से बिना टस-मस हुए सिहरी हुई हटने का नाम नहीं ले रही थी.
रमेसर काका उठकर बैठ गए और बैठे-बैठे ही भैंस के पेट पर हाथ फेरने लगे. भैंस भी अपनापन पाकर रमेसर काका से और सटकर खड़ी हो गई. रमेसर काका को लगा कि शायद भैंस को मच्छर लग रहे हैं इसलिए बैठ नहीं रही है और बार-बार पूँछ से शरीर को झाड़ रही है. वे खड़े हो गए और मड़ई के दरवाजे पर रखे धुँहरहे(मवेशियों को मच्छर आदि से बचाने के लिए जलाई हुई आग जिसमें से धुँआ निकलकर फैलता है और मच्छर आदि भग जाते हैं) पर थोड़ा घांस-फूंस रखकर मुँह से फूंकने लगे.
रमेसर काका फूँक मार-मारकर आग तेज करने लगे और धुंआ भी बढ़ने लगा। बार-बार फूँक मारने से अचानक एक बार घांस-फूँस जलने लगी और मड़ई में थोड़ा प्रकाश फैल गया। उस प्रकाश में अचानक रमेसर काका की नजर उनकी बंसखटिया पर पड़ी। अरे उनको तो बँसखटिया पर एक औरत दिखाई दी। उसे देखते ही उनके पूरे शरीर में बिजली कौंध गई और इसके साथ ही आकाश में भी बिजली कड़की और एक तेज प्रकाश हुआ।
रमेसर काका डरनेवालों में से तो नहीं थे पर पता नहीं क्यों उनको आज थोड़ा डर का आभास हुआ। पर उन्होंने हिम्मत करके आग को और तेज किया और उसपर सूखा पुआल रखकर पूरा अँजोर(प्रकाश) कर दिया। अब उस पुआल के अँजोर में वह महिला साफ नजर आ रही थी, अब रमेसर काका उस अंजोर में उस औरत को अच्छी तरह से देख सकते थे।
रमेसर काका ने धुँहरहे के पास बैठे-बैठे ही जोर की हाँक लगाकर पूछा, ''कौन है? कौन है वहाँ?"
पर उधर से कुछ भी प्रतिक्रिया न पाकर वे सन्न रह गए. उनकी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था कि अब क्या करना है. वे मन ही मन कुछ बुदबुदाए और उठकर खड़े हो गए. उनके पैर न आगे अपनी खाट की ओर ही बढ़ रहे थे और ना ही मड़ई के बाहर ही.
अचानक खाट पर बैठी महिला अट्टहास करने लगी. उसकी तेज, भयंकर, डरावनी हँसी ने उस अंधेरी काली रात को और भी भयावह बना दिया. रमेसर काका पर अब सजग हो चुके थे. उन्होंने अब सोच लिया था कि डरना नहीं है क्योंकि अगर डरा तो मरा.
रमेसर काका अब तनकर खड़े हो गए थे. उन्होंने मड़ई के कोने में रखी लाठी को अपने हाथ में ले लिया था. वे फिर से बोल पड़े, "कौन हो तुम? तुमको क्या लगता है, मैं तुमसे डर रहा हूँ??? कदापि नहीं.' और इतना कहते ही रमेसर काका भी हा-हा-हा करने लगे। पर सच्चाई यह थी कि रमेसर काका अंदर से पूरी तरह डरे हुए थे। रमेसर काका का वह रूप देखकर वह महिला और उग्र हो गई और अपनी जगह पर खड़ी होकर तड़पी, "तूँ...डरता नहीं...है.SSSSSSSS न..बताती हूँ मैं तुझे." रमेसर काका को पता नहीं क्यों अब कुछ और बल मिला और डर और भी कम हुआ. वे बोल पड़े, "बता, क्या करेगी तूँ मेरा? जल्दी यहाँ से निकल नहीं तो इस लाठी से मार-मारकर तेरा सिर फोड़ दूँगा." इतना कहते ही रमेसर काका ने अपनी लाठी तान ली.
महिला चिल्लाई, "तूँ मुझे मेरे ही घर से निकालेगा? अरे मेरा बचपन बीता है इस मड़ई में. यह मेरा घर है मेरा. मैं बरसों से यहीं रहते आ रहीं हूं. पर पहले तो किसी ने कभी नहीं भगाया. यहाँ तक कि भइया (कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में पिताजी को भइया भी कहते हैं)ने भी." अब पता नहीं क्यों रमेसर काका का गुस्सा और डर दोनों शांत हो रहे थे. उनको अब लग रहा था कि उनके सामने जो महिला खड़ी है उसको वे जानते हैं, उसकी आवाज पहचानते हैं.
रमेसर काका अब लाठी पर अपने शरीर को टिका दिए थे और दिमाग पर जोर डालकर यह सोचने की कोशिश करने लगे कि यह कौन है? और अगर पहचान की है तो यह चुड़ैल के रूप में भयंकर, विकराल चेहरेवाली क्यों है? ओह तो यह बलेसरा बहिन (बहन) है क्या? अचानक उनके दिमाग में कौंधा. नहीं-नहीं बलेसरा बहिन नहीं हो सकती. उसे तो मरे हुए पच्चीसो साल हो गए. अब रमेसर काका अपने अतीत में जा चुके थे. उनको सबकुछ याद आ रहा था. उस समय उनकी बलेसरा बहिन 12-14 साल की थीं और उम्र में उनसे 3-4 साल बड़ी थी. चारा काटने से लेकर गोबर-गोहथार करने में दोनों भा-बहिन साथ-साथ लगे रहते थे. एक दिन दोपहर का समय था और इसी गड़ही पर इन्हीं आमों के पेड़ों पर गाँव के कुछ बच्चे ओल्हा-पाती खेल रहे थे. बलेसरा बहिन बंदरों की भांति इस डाली से उस डाली उछल-कूद कर रही थी. नीचे चोर बना लड़का पेड़ों पर चढ़े लड़के-लड़कियों को छूने की कोशिश कर रहा था. अचानक कोई कुछच समझे इससे पहले ही बलेसरा बहिन जिस डाली पर बैठी थी वह टूट चुकी थी और बलेसरा बहिन औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ी थीं. सभी बच्चों को थकुआ मार गया था और जबतक बड़ें लोग आकर बलेसरा बहिन को उठाते तबतक उसकी इहलीला समाप्त हो चुकी थी.
रमेसर काका अभी यही सब सोच रहे थे तबतक उन्हें उस औरत के रोने की आवाज सुनाई दी. बिलकुल बलेसरा बहिन की तरह. अब रमेसर काका को पूरा यकीं हो गया था कि यह बलेसरा बहिन ही है. रमेसरा काका अब ये भूल चुके थे कि उनकी बहन मर चुकी है वे दौड़कर खाट के पास गए और बलेसरा बहिन को अंकवार में पकड़कर रोने लगे थे. उन्हें कुछ भी सूझ-बूझ नहीं थी. सुबह हो गई थी और वे अभी भी रोए जा रहे थे. तभी उधर कुछ लोग कुछ काम से आए और उन्हें रमेसर काका के रोने की आवाज सुनाई दी. उन्होंने मड़ई में झाँक कर देखा तो रमेसर काका एक महिला को अँकवार में पकड़कर रो रहे थे.
उस महिला को देखते ही ये सभी लोग सन्न रह गए क्योंकि वह वास्तव में बलेसरा ही थीं जो बहुत समय पहले भगवान को प्यारी हो गई थीं. धीरे-धीरे यह बात पूरे गाँव में आग की तरह फैल गई और उस गड़ही पर भीड़ लग गई. गाँव के बुजुर्ग पंडीजी ने कहा कि दरअसल बलेसरा जब मरी तो वह बच्ची नहीं थी, उसकी अंतिम क्रिया करनी चाहिए थी पर उसे बच्ची समझकर केवल दफना दिया गया था और अंतिम क्रिया नहीं किया गया था. उसकी आत्मा भी भटक रही है.
लोग अभी आपस में बात कर ही रहे थे तभी रमेसर काका बलेसरा बहिन के साथ मड़ई से बाहर निकले. बलेसरा गाँव के लोगों को एकत्र देखकर फूट-फूटकर रोने लगी थी. सब लोग उसे समझा रहे थे पर दूर से ही. रमेसर काका के अलावा किसी की भी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह बलेसरा के पास जाए.
बलेसरा अचानक बोल पड़ी, ""हाँ यह सही है कि मैं मर चुकी हूँ. पर मुझसे डरने की आवश्यकता नहीं है. मैं इसी गाँव की बेटी हूँ पर आजतक भटक रही हूं. मेरी सुध कोई नहीं ले रहा है. मैं इस गड़ही पर रहकर अन्य भूत-प्रेतों से अपने गाँव के लोगों की रक्षा करती हूँ. मैं नहीं चाहती हूँ कि इस गड़ही पर, इन आम के पेड़ों पर अगर कोई गाँव का व्यक्ति ओल्हा-पाती खेले तो उसे किसी भूत का कोपभाजन बनना पड़े. इतना कहने के बाद बलेसरा रोने लगी और रोते-रोते बोली, "मुझे एक प्रेत ने ओल्हा-पाती खेलते समय धक्का दे दिया था."
आगे बलेसरा ने जो कुछ बताया उससे लोगों के रोएं खड़े हो गए.....बलेसरा ने क्या-क्या बताया इसे जानने के लिए इस कहानी की अगली कड़ी का आपको इंतजार करना पड़ेगा. आखिर वो प्रेत कौन था जिसने बलेसरा को धक्का दिया था. इन बूत-प्रेतों की दुनिया कैसी है? यह सब जानने के लिए इस कहानी की अगली कड़ी का इंतजार करें...............नमस्कार.
WEDNESDAY, FEBRUARY 10, 2010
और उसने कर ली एक चुड़ैल (महिला भूत) से शादी ???
पिछली कहानी में आपने पढ़ा ‘एक दिवानी चुड़ैल के बारे में’ और आपने यह भी पढ़ा कि किस प्रकार छूटा था उस दिवानी चुड़ैल से पीछा।
अब जो कहानी मैं आप लोगों को सुनाने जा रहा हूँ वह है एक ऐसे आदमी की जिसको पता नहीं क्या सूझा कि वह शादी करने के लिए एक चुड़ैल के पीछे ही पड़ गया। वह उस चुड़ैल को पाने के लिए बहुत सारे हथकंडे अपनाए....पर क्या वह सफल हुआ? क्या वह चुड़ैल उससे शादी करने के लिए राजी हुई? आइए इस रहस्य पर से परदा उठाते हैं......।
बात कोई 13-14 साल पुरानी है और मेरे मित्र की माने तो एकदम सही। अरे इतना ही नहीं, मेरे मित्र के अलावा और भी कई लोग इस घटना को बनावटी नहीं सच्ची मानते हैं। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि मेरे मित्र और चुड़ैल के बीच जो रोमांचक बातें हो रही थी उसके वे लोग भी गवाह हैं क्योंकि उन लोगों ने वे सारी बातें सुनी।
तो आइए अब आपका वक्त जाया न करते हुए मैं अपने मित्र रमेश के मुखारबिंदु से सुनी इस घटना को आप लोगों को सुनाता हूँ।
उस समय रमेश की उम्र कोई 22-23 साल थी और आप लोगों को तो पता ही है कि गाँवों में इस उम्र में लोग बच्चों के बाप बन जाते हैं मतलब परिणय-बंधन में तो बँध ही जाते हैं।
हाँ तो रमेश की भी शादी हुए लगभग 4-5 साल हो गए थे और ढेड़-दो साल पहले ही उसका गौना हुआ था। उस समय रमेश घर पर ही रहता था और अपनी एम.ए. की पढ़ाई पूरी कर रहा था।
यह घटना जब घटी उस समय रमेश एक 20-25 दिन की सुंदर बच्ची का पिता बन चुका था। हाँ एक बात मैं आप लोगों को बता दूँ कि रमेश की बीबी बहुत ही निडर स्वभाव की महिला थी। यह गुण बताना इसलिए आवश्यक था कि इस कहानी की शुरुवात में इसकी निडरता अहम भूमिका निभाती है।
एक दिन की बात है कि रमेश की बीबी ने अपनी निडरता का परिचय दिया और अपनी नन्हीं बच्ची (उम्र लगभग एक माह से कम ही) और रमेश को बिस्तर पर सोता हुआ छोड़ चार बजे सुबह उठ गई। (गाँवों में आज-कल तो लोग पाखाना-घर बनवाने लगे हैं पर 10-12 साल पहले तक अधिकतर घरों की महिलाओं को नित्य-क्रिया (दिशा-मैदान) हेतु घर से बाहर ही जाना पड़ता था और घर की सब महिलाएँ नहीं तो कम से कम दो एक साथ घर से बाहर निकलती थीं। ये महिलाएँ सभी लोगों के जगने से पूर्व ही (बह्म मुहूर्त में) जगकर खेतों की ओर चली जाती थीं।)
ऐसा नहीं था कि रमेश की बीबी पहली बार चार बजे जगी थी, अरे भाई वह प्रतिदिन चार बजे ही जगती थी पर निडरता का परिचय इसलिए कह रहा हूँ कि और दिनों की तरह उसने घर के किसी महिला सदस्य को जगाया नहीं और अकेले ही दिशा मैदान हेतु घर से बाहर निकल पड़ी। (दरअसल गाँव में लड़कोरी महिला (जच्चा) जिसका बच्चा अभी 6 महीना तक का न हुआ हो उसको अलवाँती बोलते हैं और ऐसा कहा जाता है कि ऐसी महिला पर भूत-प्रेत की छाया जल्दी पड़ जाती है या भूत-प्रेत ऐसी महिला को जल्दी चपेट में ले लेते हैं। इसलिए ये अलवाँती महिलाएँ जिस घर में रहती हैं वहाँ आग जलाकर रखते हैं या कुछ लोग इनके तकिया के नीचे चाकू आदि रखते हैं।)
खैर रमेश की बीबी ने अपनी निडरता दिखाई और वह निडरता उसपर भारी पड़ी। वह अकेले घर से काफी दूर खेतों की ओर निकल पड़ी। हुआ यह कि उसी समय पंडीजी के श्रीफल (बेल) पर रहनेवाली चुड़ैल उधर घूम रही थी और न चाहते हुए भी उसने रमेश की बीबी पर अपना डेरा डाल दिया। हाँ फर्क सिर्फ इतना था कि वह पहले दूर-दूर से ही रमेश की बीबी का पीछा करती रही पर अंततः उसने अपने आप को रोक नहीं पाई और ज्यों ही रमेश की बीबी घर पहुँची उस पर सवार हो गई।
रमेश भी लगभग 5 बजे जगा और भैंस आदि को चारा देने के लिए घर से बाहर चला गया। जब वह घर में वापस आया तो अपनी बीबी की हरकतों में बदलाव देखा। उसने देखा कि उसकी बच्ची रो रही है पर उसकी बीबी आराम से पलंग पर बैठकर पैर पसारे हुए कुछ गुनगुना रही है।
रमेश एकबार अपनी रोती हुई बच्ची को देखा और दूसरी बार दाँत निपोड़ते और पलंग पर बेखौफ बैठी हुई अपनी बीबी को। उसको गुस्सा आया और उसने बच्ची को अपनी गोद में उठा लिया और अपनी बीबी पर गरजा,“बच्ची रो रही है और तुम्हारे कान पर जूँ तक नहीं रेंग रही है।” अरे यह क्या रमेश की बीबी ने तो रमेश के इस गुस्से को नजरअंदाज कर दिया और अपने में ही मस्त बनी रही।
रमेश का गुस्सा और बढ़े इससे पहले ही रमेश की भाभी वहाँ आ गईं और रमेश की गोदी में से बच्ची को लेते हुए उसे बाहर जाने के लिए कहा। अरे यह क्या रमेश का गुस्सा तो अब और भी बढ़ गया, उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आज क्या हो रहा है, जो औरत (उसकी बीबी) अपने से बड़ों के उस घर में आते ही पलंग पर से खड़ी हो जाती थी वही बीबी आज उसके भाभी के आने के बाद भी पलंग पर आराम से बैठे मुस्कुरा रही है।
खैर रमेश तो कुछ नहीं समझा पर उसकी भाभी को सबकुछ समझ में आ गया और वे हँसने लगी। रमेश को अपनी भाभी का हँसना मूर्खतापूर्ण लगा और वह अपने भाभी से बोल पड़ा, “अरे आपको क्या हुआ? ये उलटी-पुलटी हरकतें कर रही है और आप हैं कि हँसे जा रही हैं।” रमेश के इतना कहते ही उसकी भाभी ने उसे मुस्कुराते हुए जबरदस्ती बाहर जाने के लिए कहा और यह भी कहा कि बाहर से दादाजी को बुला लीजिए।
भाभी के इतना कहते ही कि दादाजी को बुला लाइए, रमेश सब समझ गया और वह बाहर न जाकर अपनी बीबी के पास ही पलंग पर बैठ गया। इतने ही देर में रमेश के घर की सभी महिलाएँ वहाँ एकत्र हो गई थीं और अगल-बगल के घरों के भी कुछ नर-नारी। अरे भाई गाँव में इन सब बातों को फैलते देर नहीं लगती और तो और अगर बात भूत-प्रेत की हो तो और भी लोग मजे ले लेकर हवाईजहाज की रफ्तार से खबर फैलाते हैं।
हाँ तो अब मैं आप को बता दूँ कि रमेश के कमरे में लगभग 10-12 मर्द-औरतों का जमावड़ा हो चुका था और रमेश ने भी सबको मना कर दिया कि यह खबर खेतों की ओर गए दादाजी के कान तक नहीं पहुँचनी चाहिए। दरअसल वह अपने आप को लोगों की नजरों में बहुत बुद्धिमान और निडर साबित करना चाहता था। वह तनकर अपनी बीबी के सामने बैठ गया और अपनी बीबी से कुछ जानने के लिए प्रश्नों की बौछार शुरु कर दी।
रमेश, “कौन हो तुम?”
रमेश की बीबी कुछ न बोली केवल मुस्कुराकर रह गई।
रमेश ओझाओं की तरह फिर गुर्राया, “मुझे ऐसा-वैसा न समझ। मैं तुमको भस्म कर दूँगा।”
रमेश की बीबी फिर से मुस्कुराई पर इस बार थोड़ा तनकर बोली, “तुम चाहते क्या हो?”
बहुत सारे लोगों को वहाँ पाकर रमेश थोड़ा अकड़ेबाजों जैसा बोला, “ ‘तुम’ मत बोल। मेरे साथ रिस्पेक्ट से बातें कर। तुम्हें पता नहीं कि मैं ब्राह्मण कुमार हूँ और उसपर भी बजरंगबली का भक्त।”
रमेश के इतना कहते ही उसकी बीबी (चुड़ैल से पीड़ित) थोड़ा सकपकाकर बोली, “मैं पंडीजी के श्रीफल पर की चुड़ैल हूँ।”
अपने बीबी के मुख से इतना सुनते ही तो रमेश को और भी जोश आ गया। उसे लगने लगा कि अब मैं वास्तव में इसपर काबू पा लूँगा। वहाँ खड़े लोग कौतुहलपूर्वक रमेश और उसकी बीबी की बातों को सुन रहे थे और मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे, अरे भाई मनोरंजन जो हो रहा था उनका।
रमेश फिर बोला,”अच्छा। पर तूने इसको पकड़ा क्यों?तुमके पता नहीं कि यह एक ब्राह्मण की बहू है और नियमित पूजा-पाठ भी करती है।”
रमेश की चुड़ैल पीड़ित बीबी बोली, “मैंने इसको जानबूझकर नहीं पकड़ा। इसको पकड़ना तो मेरी मजबूरी हो गई थी। यह इस हालत में अकेले बाहर गई क्यों? खैर अब मैं जा रही हूँ। मैं खुद ही अब अधिक देर यहाँ नहीं रह सकती।”
रमेश अपने बीबी की इन बातों को सुनकर बोला, “क्यों क्या हुआ? डर गई न मुझसे।”
रमेश के इतना कहते ही फिर उसकी बीबी मुस्कुराई और बोली, “तुमसे क्या डर। मैं तो उससे डर रही हूँ जो इस घर पर लटक रहा है और मुझे जला रहा है। अब उसका ताप मुझे सहन नहीं हो रहा है।” (दरअसल बात यह थी कि रमेश के घर के ठीक पीछे एक पीपल का पेड़ था और गाँववाले उस पेड़ को बाँसदेव बाबा कहते थे। लोगों का विश्वास था कि इस पेड़ पर कोई अच्छी आत्मा रहती है और वह सबकी सहायता करती है। कभी-कभी तो लोग उस पीपल के नीचे जेवनार आदि भी चढ़ाते थे। और हाँ इस पीपल की एक डाली रमेश के घर के उसी कमरे पर लटकती रहती थी जिसमें रमेश की बीबी रहती थी।)
चुड़ैल (अपनी बीबी) की बात सुनकर रमेश हँसा और बोला, “जा मत यहीं रह जा। जैसे हमारी एक बीबी है वैसे ही तुम एक और।”
रमेश के इतना कहते ही वह चुड़ैल हँसी और बोली, “यह संभव नहीं है पर तुम मुझसे शादी क्यों करना चाहते हो?”
रमेश बोला, “अरे भाई गरीब ब्राह्मण हूँ। कुछ कमाता-धमाता तो हूँ नहीं। तूँ रहेगी जो थोड़ा धन-दौलत लाती रहेगी।”
रमेश के इतना कहते ही वह चुड़ैल बोली, “तुम बहुत चालू है। और हाँ यह भी सही है कि हमारे पास बहुत सारा धन है पर उसपर हमारे लोगों का पहरा रहता है अगर कोई इंसान वह धन लेना चाहे तो हमलोग उसका अहित कर देती हैं। हाँ और एक बात, और वह धन तुम जैसे जीवित प्राणियों के लिए नहीं है।”
रमेश अब थोड़ा शांत और शालीन स्वभाव में बोला,“अच्छा ठीक है, तुम जरा कृपा करके एक बात बताओ, ये भूत-प्रेत क्या होते हैं, क्या तुमने कभी भगवान को देखा है, आखिर तुम कौन हो, क्या पहले तुम भी इंसान ही थी?”
चुड़ैल भी थोड़ा शांत थी और शांत थे वहाँ उपस्थित सभी लोग। क्योंकि सबलोग इन प्रश्नों का उत्तर जानना चाहते थे।
चुड़ैल ने एक गहरी साँस भरा और कहना आरंभ किया,“भगवान क्या है, मुझे नहीं मालूम पर कुछ हमारे जैसी आत्माएँ भी होती हैं जिनसे हमलोग बहुत डरते हैं और उनसे दूर रहना ही पसंद करते हैं। हमलोग उनसे क्यों डरती हैं यह भी मुझे पता नहीं। वैसे हमलोग पूजा-पाठ करनेवाले लोगों के पास भी भटकना पसंद नहीं करते और मंत्रों आदि से भी डरते हैं।”
रमेश फिर पूछा, “खैर ये बताओ कि तुम इसके पहले क्या थी? तुम्हारा घर कहाँ था, तुम चुड़ैल कैसे बन गई।”
चुड़ैल ने रमेश की बातों को अनसुना करते हुए कहा,“नहीं, नहीं..अब मैं जा रही हूँ। अब और मैं यहाँ नहीं रूक सकती। वे आ रहे हैं।”
चुड़ैल के इतना कहते ही कोई तो कमरे में प्रवेश किया और रमेश को डाँटा, “रमेश। यह सब क्या हो रहा है?क्या मजाक बनाकर रखे हो?” रमेश कुछ बोले इससे पहले ही क्या देखता है कि उसकी बीबी ने साड़ी का पल्लू झट से अपने सर पर रख लिया और हड़बड़ाकर पलंग पर से उतरकर नीचे बैठ गई और धीरे-धीरे मेरी बेटी-मेरी बेटी कहते हुए रमेश की भाभी की गोद में से बच्ची को लेकर दूध पिलाने लगी।
रमेश ने एक दृष्टि अपने दादाजी की ओर डाला और मन ही मन बुदबुदाया, “आप को अभी आना था। सब खेल बिगाड़ दिए।आधे घंटे बाद आते तो क्या बिगड़ जाता।।।।।।”
-पंडित प्रभाकर पाण्डेय
SATURDAY, SEPTEMBER 12, 2009
....तब छूटा चुड़ैल से पीछा (दिवानी चुड़ैल)
यह कहानी है एक चुड़ैल की जो एक व्यक्ति केपीछे ही पड़ गई थी। और हाँ ये चुड़ैल उस व्यक्ति से बहुत कुछ दिल की बातें करती थी। इस चुड़ैल का तो यहाँ तक कहना था कि उसको उस व्यक्ति से प्यार हो गया है और वह सदा के लिए उसका बनकर रहना चाहती है। पर क्या वह चुड़ैल उस व्यक्ति को अपना बना पाई?????......शायद यह कहानी इस रहस्य पर से परदा उठाएगी और एक चुड़ैल के प्रेम को, उसकी चाहत को बयाँ करेगी।
हाँ पर इतना ही नहीं, मैं बता दूँ कि यह कहानी मैंने उस व्यक्ति से सुनी है जिसके पीछे वह चुड़ैल पड़ गई थी हाँ मतलब प्यार में। एकदिन जब मैं उस व्यक्ति के पास बैठा, भूत-प्रेतों के बारे में जानने के लिए बहुत ही उत्सुक था तो उस व्यक्ति ने यह कहानी सुनाई......आप भी सुनिए और आनंद लीजिए..........डरना मना है..........
यह कहानी आज से ५५-६० साल पहले की है जब गाँवों के अगल-बगल में बहुत सारे पेड़-पौधे, झाड़ियाँ आदि हुआ करती थीं। जगह-जगह पर बँसवाड़ी (बाँस का बगीचा), महुआनी (महुआ का बगीचा), बारियाँ (आम आदि पेड़ों के बगीचे) आदि हुआ करती थीं। गाँव के बाहर निकलने के लिए कच्ची पगडंडियाँ थीं वह भी मूँज आदि पौधों से घिरी हुई।
ऐसे समय में भूत-प्रेतों, चुड़ैलों का बहुत ही बोलबाला था। लोगों को इन अनसुलझी आत्माओं के डरावने अनुभव हुआ करते थे। यहाँ तक की ये रोएँ खड़ी कर देने वाली आत्माओं के कुछ नाम भी हुआ करते थे जो इनके काम या रहने की जगह आदि पर रखे जाते थे। जैसे- पंडीजी के श्रीफल पर की चुड़ैल, नेटुआबीर बाबा, बड़कीबारी वाला भूत, बँसबाड़ी में की चुड़ैल, सारंगी बाबा, रक्तपियनी चुड़ै़ल, नहरडुबनी चुड़ैल,प्यासनमरी चुड़ैल आदि। तो आइए आप लोगों को उस चुड़ै़ल से मिलवाता हूँ जो एक आम के बगीचे के कोने में स्थित एक बाँस की कोठी (कोठी यानि एक पास एक में सटे उगे हुए बहुत से बाँस) में रहती थी।
यह कहानी जिस समय की है उस समय बहिरू बाबा गबड़ू जवान थे। चिक्का, कबड्डी, दौड़ आदि में बड़चढ़ कर हिस्सा लेते थे और हमेशा बाजी मारते थे। अरे भाई कबड्डी खेलते समय अगर तीन-चार लोग भी उन्हें पकड़ लेते थे तो सबको खींचते हुए बिना साँस तोड़े बहिरू बाबा लाइन छू लेते थे।
बहिरू बाबा के घर के आगे लगभग २०० मीटर की दूरी पर उनका खुद का एक आम का बगीचा था जिसमें आम के लगभग १५-१६ पेड़ थे और इस बगीचे के एक कोने में बसवाड़ी भी थी जिसमें बाँस की तीन-चार कोठियाँ थीं।
आम का मौसम था और इस बगीचे के हर पेड़ की डालियाँ आम से लदकर झुल रही थीं। दिन में बहिरू बाबा के घर का कोई व्यक्ति दिनभर इन आमों की रखवाली करता था पर रात को रखवाली करने का जिम्मा बहिरू बाबा का ही था। रात होते ही बहिरू बाबा खाने-पीने के बाद अपना बिस्तर और बँसखटिया उठाते थे और सोने के लिए इस आम के बगीचे में चले जाते थे।
एक रात बहिरू बाबा बगीचे में अपनी बँसखटिया पर सोए हुए थे। तभी उनको बँसवाड़ी के तरफ कुछ आहट सुनाई दी। बहिरू बाबा तो जग गए पर खाट पर पड़े-पड़े ही अपनी नजर बँसवाड़ी की तरफ घुमा दिए। उनको बँसवाड़ी के कुछ बाँस हिलते हुए नजर आ रहे थे पर हवा न बहने की वजह से उनको लगा कि कोई जानवर बाँसों में घुसकर अपने शरीर को रगड़ रहा होगा और शायद इसकी वजह से ये बाँस हिल रहे हैं।
इसके बाद बहिरू बाबा उठकर खाट पर ही बैठ गए और अपनी लाठी संभाल लिए। अभी बहिरू बाबा कुछ बोलें इसके पहले ही उन्हें बँसवाड़ी में से एक औरत निकलती हुई दिखाई दी। उस औरत को देखते ही बहिरू बाबा की साँसे तेज हो गई और वे लगे सोचने की इतनी रात को कोई औरत इस बँसवाड़ी में क्या कर रही है। जरूर कुछ गड़बड़ है। अभी वे कुछ सोंच ही रहे थे कि वह औरत उनके पास आकर कुछ दूरी पर खड़ी हो गई।
बहिरू बाबा तो हक्का-बक्का थे। उनके मुँह से आवाज भी नहीं निकल रही थी पर कैसे भी हिम्मत करके उन्होंने पूछा कि तुम कौन हो और इतनी रात को यहाँ क्यों आई हो?
बहिरू बाबा की बात सुनकर वह औरत बहुत जोर से डरावनी हँसी हँसी और बोली औरत हूँ और इसी बँसबाड़ी में रहती हूँ। बहुत दिनों से मैं तुमको यहाँ सोते हुए देख रही हूँ और धीरे-धीरे मुझे अब तुमसे प्यार हो गया है। मैं सदा तुम्हारी होकर रहना चाहती हूँ। बहिरू बाबा को अब यह समझते देर नहीं लगी कि यह तो वही चुड़ैल है जिसके बारे में लोग बताते हैं कि इस बगीचे में बहुत साल पहले घुमक्कड़ मदारी (जादूगर) परिवार आकर लगभग तीन-चार महीने रहा था और एक दिन कुछ लोंगो ने उस मदारी परिवार की एक १०-११ साल की बालिका को इसी बसवाड़ी में मरे पाया था और मदारी परिवार वहाँ से अपना बोरिया-बिस्तर लेकर नदारद था और वही बालिका चुड़ैल बन गई थी क्योंकि उसकी हत्या गला दबाकर की गई थी।
बहिरू बाबा अब धीरे-धीरे अपने डर पर काबू पा चुके थे और उस चुड़ैल से बोले कि तुम ठहरी मरी हुई आत्मा और मैं जीता-जागता। तुम बताओ मैं तुमको कैसे अपना सकता हूँ। बहिरू बाबा की बात सुनकर वह चुड़ैल थोड़ा गुस्से में बोली कि मैं कुछ नहीं जानती अगर तुम मुझे ठुकराओगे तो मैं तुम्हें मार डालूँगी। तुम्हे हर हालत में मुझे अपनाना ही होगा। अब बहिरू बाबा कुछ बोले तो नहीं पर धीरे-धीरे हनुमान चालीसा पढ़ने लगे। वह चुड़ैल धीरे-धीरे पीछे हटने लगी पर बहिरू बाबा को चेतावनी भी देती गई कि हर हालत में उनको उसे अपनाना ही होगा।
इस घटना के बाद तो बहिरू बाबा की नींद ही उड़ गई और वे अपनी बँसखटिया उठाए घर चले गए।
दूसरे दिन रात को बहिरू बाबा ने बगीचे में न सोने के लिए बहाना बनाया और घर के बाहर दरवाजे पर ही सो गए। अरे यह क्या रात को उनकी अचानक नींद खुली तो वो क्या देखते हैं कि उनके साथ कुछ गड़बड़ हो गई है और कोई औरत उनके पास सोई हुई है। बहिरू बाबा फौरन जग गए और उस औरत से लगे पुछने की कौन हो तुम??? वह औरत डरावनी हँसी हँसी और बोली कि रातवाली ही हूँ। तुम मुझसे पीछा नहीं छुड़ा सकते और हाँ अब तो तुने मुझे अपना भी लिया है। अब प्रतिदिन रात को वह चुड़ैल बहिरू बाबा के पास आने लगी और बहिरू बाबा चाहते हुए भी कुछ न कर सके।
इस घटना को चलते १५-२० दिन बीत गए अब बहिरू बाबा में पहलेवाली ताकत नहीं रही वे बहुत ही कमजोर हो गए थे। उनके घरवाले ये समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर इनको क्या हो गया है। एक हट्टा-कट्ठा आदमी इतना कमजोर कैसे हो गया। घरवालों ने बहिरू बाबा से बहुत बार पूछा कि उन्हें क्या हो गया है पर वे लोक-लाज के डर से कुछ नहीं बताते थे। कई डाक्टरों को दिखाया गया पर बहिरू बाबा की हालत में कोई सुधार नजर नहीं आया।
एकदिन गाँव में नाच (नौटंकी) आया हुआ था और बहिरू बाबा अपने संगतिया लोगों (दोस्तों) के साथ नाच देखने गए हुए थे। जहाँ नाच हो रहा था वहाँ पान की दुकान भी लगी हुई थी। बहिरू बाबा ने वहाँ से पान लगवाकर एक बीड़ा खा लिया और पानवाले से दो बीड़ा लगाकर बाँधकर देने के लिए कहा। पानवाले ने दो बीड़ा पान कागज में लपेटकर बहिरू बाबा को दे दिया। नाच देखने के बाद बहिरू बाबा घर आए और सोने से पहले एक बीड़ा पान निकालकर खाए और बाकी एक बीड़े को वैसे ही लपेटकर पाकेट में रख लिए।
उस रात बहिरू बाबा के साथ एक चमत्कार हुआ और वह चमत्कार यह था कि वह चुड़ैल उनके पास नहीं आई। सुबह बहिरू बाबा जगे तो बहुत खुश थे। उनको लग रहा था कि पान लेकर सोने की वजह से वह चुड़ैल उनके पास नहीं आई। उन्होंने अपने पास रखे उस दूसरे बीड़ा पान को खाया नहीं और दूसरी रात भी उसको पाकेट में रखकर ही सोए। उस रात वह चुड़ैल तो आई पर इनके खाट से कुछ दूरी पर खड़ी होकर चिल्लाने लगी। बहिरू बाबा की नींद खुल गई और वे उठकर बैठ गए। उस चुड़ैल ने गुस्से में कहा कि तुम्हारे पाकेट में पानलपेटा जोकागज है उसको निकालकर फेंक दो पर ऐसा करने से बहिरू बाबा ने मना कर दिया। लाख कोशिशों के बाद भी जब वह चुड़ैल अपने मकसद में कामयाब नहीं हुई तो रोते हुए उस बँसवाड़ी की ओर चली गई।
अब बहिरू बाबा को नींद नहीं आई वे फौरन बैटरी (टार्च) जलाकर पानलपेटे उस कागज को देखने लगे। उनको यह देखकर बहुत विस्मय हुआ कि पान जिस कागज में लपेटा था वह कागज किसी अखबार का भाग था और उसमें हनुमान-यंत्र बना हुआ था। अब बहिरू बाबा समझ चुके थे कि पान की वजह से नहीं अपितु हनुमानजी की वजह से उन्हें इस दुष्ट चुड़ैल से पीछा मिल गया था।
दूसरे दिन नहा-धोकर बहिरू बाबा मंदिर गए और वहाँ से एक हनुमान का लाकेट खरीदकर गले में धारण किए और इतना ही नहीं अब रात को सोते समय वे हमेशा हनुमान चालीसा का पाठ करते और हनुमान चालीसा को सिर के पास रखकर ही सोते।
अब बहिरू बाबा फिर से भले-चंगे हो गए थे और अब आम के बगीचे में सोना भी शुरु कर दिए थे। हाँ पर वे जब भी अकेले सुन-सान में उसबँसवाड़ी की तरफ जाते थे उस चुड़ैल को रोता हुआ ही पाते थे। वह चुड़ैल बहिरू बाबा से अपने प्यार की भीख माँगते हुए गिड़गिड़ाती रहती।
जय बजरंग बली।।
-प्रभाकर पाण्डेय
(अगली कहानी उस आदमी की है जो एक चुड़ैल से शादी करना चाहता था पर क्या वह चुड़ैल राजी हुई? वह आदमी क्यों करना चाहता था एक चुड़ैल से शादी??)
हाँ पर इतना ही नहीं, मैं बता दूँ कि यह कहानी मैंने उस व्यक्ति से सुनी है जिसके पीछे वह चुड़ैल पड़ गई थी हाँ मतलब प्यार में। एकदिन जब मैं उस व्यक्ति के पास बैठा, भूत-प्रेतों के बारे में जानने के लिए बहुत ही उत्सुक था तो उस व्यक्ति ने यह कहानी सुनाई......आप भी सुनिए और आनंद लीजिए..........डरना मना है..........
यह कहानी आज से ५५-६० साल पहले की है जब गाँवों के अगल-बगल में बहुत सारे पेड़-पौधे, झाड़ियाँ आदि हुआ करती थीं। जगह-जगह पर बँसवाड़ी (बाँस का बगीचा), महुआनी (महुआ का बगीचा), बारियाँ (आम आदि पेड़ों के बगीचे) आदि हुआ करती थीं। गाँव के बाहर निकलने के लिए कच्ची पगडंडियाँ थीं वह भी मूँज आदि पौधों से घिरी हुई।
ऐसे समय में भूत-प्रेतों, चुड़ैलों का बहुत ही बोलबाला था। लोगों को इन अनसुलझी आत्माओं के डरावने अनुभव हुआ करते थे। यहाँ तक की ये रोएँ खड़ी कर देने वाली आत्माओं के कुछ नाम भी हुआ करते थे जो इनके काम या रहने की जगह आदि पर रखे जाते थे। जैसे- पंडीजी के श्रीफल पर की चुड़ैल, नेटुआबीर बाबा, बड़कीबारी वाला भूत, बँसबाड़ी में की चुड़ैल, सारंगी बाबा, रक्तपियनी चुड़ै़ल, नहरडुबनी चुड़ैल,प्यासनमरी चुड़ैल आदि। तो आइए आप लोगों को उस चुड़ै़ल से मिलवाता हूँ जो एक आम के बगीचे के कोने में स्थित एक बाँस की कोठी (कोठी यानि एक पास एक में सटे उगे हुए बहुत से बाँस) में रहती थी।
यह कहानी जिस समय की है उस समय बहिरू बाबा गबड़ू जवान थे। चिक्का, कबड्डी, दौड़ आदि में बड़चढ़ कर हिस्सा लेते थे और हमेशा बाजी मारते थे। अरे भाई कबड्डी खेलते समय अगर तीन-चार लोग भी उन्हें पकड़ लेते थे तो सबको खींचते हुए बिना साँस तोड़े बहिरू बाबा लाइन छू लेते थे।
बहिरू बाबा के घर के आगे लगभग २०० मीटर की दूरी पर उनका खुद का एक आम का बगीचा था जिसमें आम के लगभग १५-१६ पेड़ थे और इस बगीचे के एक कोने में बसवाड़ी भी थी जिसमें बाँस की तीन-चार कोठियाँ थीं।
आम का मौसम था और इस बगीचे के हर पेड़ की डालियाँ आम से लदकर झुल रही थीं। दिन में बहिरू बाबा के घर का कोई व्यक्ति दिनभर इन आमों की रखवाली करता था पर रात को रखवाली करने का जिम्मा बहिरू बाबा का ही था। रात होते ही बहिरू बाबा खाने-पीने के बाद अपना बिस्तर और बँसखटिया उठाते थे और सोने के लिए इस आम के बगीचे में चले जाते थे।
एक रात बहिरू बाबा बगीचे में अपनी बँसखटिया पर सोए हुए थे। तभी उनको बँसवाड़ी के तरफ कुछ आहट सुनाई दी। बहिरू बाबा तो जग गए पर खाट पर पड़े-पड़े ही अपनी नजर बँसवाड़ी की तरफ घुमा दिए। उनको बँसवाड़ी के कुछ बाँस हिलते हुए नजर आ रहे थे पर हवा न बहने की वजह से उनको लगा कि कोई जानवर बाँसों में घुसकर अपने शरीर को रगड़ रहा होगा और शायद इसकी वजह से ये बाँस हिल रहे हैं।
इसके बाद बहिरू बाबा उठकर खाट पर ही बैठ गए और अपनी लाठी संभाल लिए। अभी बहिरू बाबा कुछ बोलें इसके पहले ही उन्हें बँसवाड़ी में से एक औरत निकलती हुई दिखाई दी। उस औरत को देखते ही बहिरू बाबा की साँसे तेज हो गई और वे लगे सोचने की इतनी रात को कोई औरत इस बँसवाड़ी में क्या कर रही है। जरूर कुछ गड़बड़ है। अभी वे कुछ सोंच ही रहे थे कि वह औरत उनके पास आकर कुछ दूरी पर खड़ी हो गई।
बहिरू बाबा तो हक्का-बक्का थे। उनके मुँह से आवाज भी नहीं निकल रही थी पर कैसे भी हिम्मत करके उन्होंने पूछा कि तुम कौन हो और इतनी रात को यहाँ क्यों आई हो?
बहिरू बाबा की बात सुनकर वह औरत बहुत जोर से डरावनी हँसी हँसी और बोली औरत हूँ और इसी बँसबाड़ी में रहती हूँ। बहुत दिनों से मैं तुमको यहाँ सोते हुए देख रही हूँ और धीरे-धीरे मुझे अब तुमसे प्यार हो गया है। मैं सदा तुम्हारी होकर रहना चाहती हूँ। बहिरू बाबा को अब यह समझते देर नहीं लगी कि यह तो वही चुड़ैल है जिसके बारे में लोग बताते हैं कि इस बगीचे में बहुत साल पहले घुमक्कड़ मदारी (जादूगर) परिवार आकर लगभग तीन-चार महीने रहा था और एक दिन कुछ लोंगो ने उस मदारी परिवार की एक १०-११ साल की बालिका को इसी बसवाड़ी में मरे पाया था और मदारी परिवार वहाँ से अपना बोरिया-बिस्तर लेकर नदारद था और वही बालिका चुड़ैल बन गई थी क्योंकि उसकी हत्या गला दबाकर की गई थी।
बहिरू बाबा अब धीरे-धीरे अपने डर पर काबू पा चुके थे और उस चुड़ैल से बोले कि तुम ठहरी मरी हुई आत्मा और मैं जीता-जागता। तुम बताओ मैं तुमको कैसे अपना सकता हूँ। बहिरू बाबा की बात सुनकर वह चुड़ैल थोड़ा गुस्से में बोली कि मैं कुछ नहीं जानती अगर तुम मुझे ठुकराओगे तो मैं तुम्हें मार डालूँगी। तुम्हे हर हालत में मुझे अपनाना ही होगा। अब बहिरू बाबा कुछ बोले तो नहीं पर धीरे-धीरे हनुमान चालीसा पढ़ने लगे। वह चुड़ैल धीरे-धीरे पीछे हटने लगी पर बहिरू बाबा को चेतावनी भी देती गई कि हर हालत में उनको उसे अपनाना ही होगा।
इस घटना के बाद तो बहिरू बाबा की नींद ही उड़ गई और वे अपनी बँसखटिया उठाए घर चले गए।
दूसरे दिन रात को बहिरू बाबा ने बगीचे में न सोने के लिए बहाना बनाया और घर के बाहर दरवाजे पर ही सो गए। अरे यह क्या रात को उनकी अचानक नींद खुली तो वो क्या देखते हैं कि उनके साथ कुछ गड़बड़ हो गई है और कोई औरत उनके पास सोई हुई है। बहिरू बाबा फौरन जग गए और उस औरत से लगे पुछने की कौन हो तुम??? वह औरत डरावनी हँसी हँसी और बोली कि रातवाली ही हूँ। तुम मुझसे पीछा नहीं छुड़ा सकते और हाँ अब तो तुने मुझे अपना भी लिया है। अब प्रतिदिन रात को वह चुड़ैल बहिरू बाबा के पास आने लगी और बहिरू बाबा चाहते हुए भी कुछ न कर सके।
इस घटना को चलते १५-२० दिन बीत गए अब बहिरू बाबा में पहलेवाली ताकत नहीं रही वे बहुत ही कमजोर हो गए थे। उनके घरवाले ये समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर इनको क्या हो गया है। एक हट्टा-कट्ठा आदमी इतना कमजोर कैसे हो गया। घरवालों ने बहिरू बाबा से बहुत बार पूछा कि उन्हें क्या हो गया है पर वे लोक-लाज के डर से कुछ नहीं बताते थे। कई डाक्टरों को दिखाया गया पर बहिरू बाबा की हालत में कोई सुधार नजर नहीं आया।
एकदिन गाँव में नाच (नौटंकी) आया हुआ था और बहिरू बाबा अपने संगतिया लोगों (दोस्तों) के साथ नाच देखने गए हुए थे। जहाँ नाच हो रहा था वहाँ पान की दुकान भी लगी हुई थी। बहिरू बाबा ने वहाँ से पान लगवाकर एक बीड़ा खा लिया और पानवाले से दो बीड़ा लगाकर बाँधकर देने के लिए कहा। पानवाले ने दो बीड़ा पान कागज में लपेटकर बहिरू बाबा को दे दिया। नाच देखने के बाद बहिरू बाबा घर आए और सोने से पहले एक बीड़ा पान निकालकर खाए और बाकी एक बीड़े को वैसे ही लपेटकर पाकेट में रख लिए।
उस रात बहिरू बाबा के साथ एक चमत्कार हुआ और वह चमत्कार यह था कि वह चुड़ैल उनके पास नहीं आई। सुबह बहिरू बाबा जगे तो बहुत खुश थे। उनको लग रहा था कि पान लेकर सोने की वजह से वह चुड़ैल उनके पास नहीं आई। उन्होंने अपने पास रखे उस दूसरे बीड़ा पान को खाया नहीं और दूसरी रात भी उसको पाकेट में रखकर ही सोए। उस रात वह चुड़ैल तो आई पर इनके खाट से कुछ दूरी पर खड़ी होकर चिल्लाने लगी। बहिरू बाबा की नींद खुल गई और वे उठकर बैठ गए। उस चुड़ैल ने गुस्से में कहा कि तुम्हारे पाकेट में पानलपेटा जोकागज है उसको निकालकर फेंक दो पर ऐसा करने से बहिरू बाबा ने मना कर दिया। लाख कोशिशों के बाद भी जब वह चुड़ैल अपने मकसद में कामयाब नहीं हुई तो रोते हुए उस बँसवाड़ी की ओर चली गई।
अब बहिरू बाबा को नींद नहीं आई वे फौरन बैटरी (टार्च) जलाकर पानलपेटे उस कागज को देखने लगे। उनको यह देखकर बहुत विस्मय हुआ कि पान जिस कागज में लपेटा था वह कागज किसी अखबार का भाग था और उसमें हनुमान-यंत्र बना हुआ था। अब बहिरू बाबा समझ चुके थे कि पान की वजह से नहीं अपितु हनुमानजी की वजह से उन्हें इस दुष्ट चुड़ैल से पीछा मिल गया था।
दूसरे दिन नहा-धोकर बहिरू बाबा मंदिर गए और वहाँ से एक हनुमान का लाकेट खरीदकर गले में धारण किए और इतना ही नहीं अब रात को सोते समय वे हमेशा हनुमान चालीसा का पाठ करते और हनुमान चालीसा को सिर के पास रखकर ही सोते।
अब बहिरू बाबा फिर से भले-चंगे हो गए थे और अब आम के बगीचे में सोना भी शुरु कर दिए थे। हाँ पर वे जब भी अकेले सुन-सान में उसबँसवाड़ी की तरफ जाते थे उस चुड़ैल को रोता हुआ ही पाते थे। वह चुड़ैल बहिरू बाबा से अपने प्यार की भीख माँगते हुए गिड़गिड़ाती रहती।
जय बजरंग बली।।
-प्रभाकर पाण्डेय
(अगली कहानी उस आदमी की है जो एक चुड़ैल से शादी करना चाहता था पर क्या वह चुड़ैल राजी हुई? वह आदमी क्यों करना चाहता था एक चुड़ैल से शादी??)
FRIDAY, APRIL 17, 2009
जोगिया बाबा.........मरकर बने भूत.......
भूत! यह शब्द ही बड़ा अजीब और रोंगटे खड़े कर देनेवाला है। पर सभी भूत, भूत (अनिष्ट करनेवाले) नहीं होते; कुछ साधु स्वभाव के भी होते हैं। मतलब अच्छा आदमी अगर मरने के बाद भूत बनता है तो उसके काम अच्छे ही होते हैं पर कभी-कभी भूत का अच्छा या बुरा बनना इस बात पर भी निर्भर करता है कि वह किन परिस्थितियों में मरा। मतलब अगर बहुत ही अच्छा आदमी है पर किसी शत्रुतावस कोई उसे जानबूझकर मार देता है तो उस व्यक्ति के भूत बनने के बाद आप उससे अच्छाई की उम्मीद नहीं कर सकते पर हो सकता है कि वह अच्छा भी हो।
आज मैं जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ वह एक साधु स्वभाव के भूत की है। आज भी गाँवों में एक प्रकार के भिखमंगा आते हैं जिन्हें जोगी (=योगी) कहा जाता है। ये लोग विशेषकर भगवा वस्त्र धारण करते हैं या लाल। इनके हाथों में सारंगी नामक बाजा रहता है जिसे ये लोग भीख माँगते समय बजाते रहते हैं।
कुछ जोगी गाने में भी बहुत निपुण होते हैं और सारंगी बजाने के साथ ही साथ गाते भी हैं। ये जोगी अपने गीतों में राजा भरथरी से संबंधित गीत गाते हैं। राजा भरथरी के बारे में यह कहा जाता है कि वे एक बहुत ही अच्छे राजा थे और बाद में जोगी हो गए थे। जोगी के रूप में 'अलख निरंजन' का उदघोष करते हुए सर्वप्रथम वे भिक्षाटन के लिए अपने ही घर आए थे और अपनी माँ के हाथ से भिक्षा लिए थे। दरअसल इन जोगियों के बारे में कहा जाता है कि जोगी बनने के बाद इन्हें सर्वप्रथम अपनी माँ या पत्नी हो तो उससे भिक्षा लेनी पड़ती है और भिक्षा लेते समय इनकी पहचान छिपी होनी चाहिए तभी ये सच्चे जोगी साबित होंगे।
इन जोगियों के भिक्षाटन का तरीका भी अलग-अलग होता है। कुछ जोगी सारंगी बजाते हुए गाँव में प्रवेश करते हैं और घर-घर जाकर जो कुछ भी अन्न-पैसा मिलता है ले लेते हैं पर कुछ जोगी एक महीने तक किसी गाँव का फेरी लगाते हैं। इस फेरी के दौरान वह जोगी सारंगी बजाते और गाते हुए पूरे गाँव में दिन में एक बार घूम जाता है। इस फेरी के दौरान वह किसी के घर से कुछ भी नहीं लेता है पर एक महीना फेरी लगाने के बाद वह घर-घर जाकर कपड़े (पुराने भी) या थोड़ा अच्छी मात्रा में अनाज आदि वसूलता है और लोग राजी-खुशी देते भी हैं। इन कपड़ों से यो लोग गुदड़ी बनाते हैं या बेंच देते हैं।
सुनाना था क्या और मैं सुना रहा हूँ क्या??? अरे मुझे तो भूत जोगी की कहानी सुनानी थी और मैं लगा भिक्षुक जोगी की कथा अलापने। आइए, अब बिना लाग-लपेट के भूत जोगी की कहानी शुरु करते हैं :-
ये कहानी आज से 35-40 वर्ष पहले की है। हमारे गाँव के पुरनिया लोग बताते हैं कि आज से बहुत पहले ये जोगी लोग (भिखमंगे जोगी) एक बड़ी संख्या में दल बनाकर आते थे और गाँव के बाहर किसी बगीचे आदि में अपना डेरा डाल देते थे। आपस में क्षेत्र का बँटवाराकर ये लोग भिक्षाटन के लिए अलग-अलग गाँवों में जाते थे।
एकबार की बात है कि ऐसा ही एक जोगियों का दल हमारे गाँव के बाहर एक बगीचे में ठहरा हुआ था। इस बगीचे में उस समय जामुन, आम आदि के पेड़ों की अधिकता थी। (आज भी इस बगीचे में एक-आध जामुन के पेड़ हैं।) ये जोगी कहाँ के रहने वाले थे, इसकी जानकारी हमारे गाँव के किसी को भी नहीं थी और ना ही कोई इन लोगों के बारे में जानना चाहा था।
अभी इन जोगियों का उस बाग में डेरा जमाए दो-चार दिन ही हुए थे की एक अजीब घटना घट गई। एकदिन हमारे गाँव का एक व्यक्ति किसी कारणवस सुबह-सुबह उस बगीचे में गया। वह बगीचे में क्या देखता है कि जोगियों का दल नदारद है और एक जामुन के पेड़ पर से एक जोगी फँसरी लगाए लटक रहा है। जोगी की उस लटकती हुई उस लाश को देखकर वह आदमी चिल्लाते हुए गाँव की ओर भागा। उसकी चिल्लाहट सुनकर गाँव के काफी लोग इकट्ठा हो गए और एक साथ उस बगीचे में जामुन के पेड़ के पास आए। गाँव के पहरेदार ने थाने पर खबर की। पुलिस आई और उस जोगी की लाश को ले गई। गाँव के कुछ प्रबुद्ध लोगों के अनुसार जोगियों में किसी बात को लेकर बड़ा झगड़ा हो गया था और उन लोगों ने इस जोगी को मारकर यहाँ लटका दिया था और खुद फरार हो गए थे।
खैर ये तो रही उस जोगी के मरने की बात। समय धीरे-धीरे बीतने लगा और अचानक एक-आध महीने के बाद ही वह जोगी उसी जामुन के पेड़ पर बैठकर सारंगी बजाता हुआ कुछ लोगों को अकेले में दिख गया। जोगी के भूत होनेवाली बात पूरे गाँव में तेजी से फैल गई और उसके बाद कोई भी अकेले उस जामुन के पेड़ के पास नहीं गया। कुछ लोगों ने यह भी दावा किया कि कभी-कभी वह जोगी भिनसहरे सारंगी बजाते हुए उन्हें गाँव के बाहर एकांत में भी दिखा।
एकबार की बात है कि जामुन खाने के लिए बच्चों का एक दल दोपहर में उस बगीचे में गया। बच्चों ने आव देखा ना ताव और तीन चार बच्चे फटाक-फटाक उस जामुन पर चढ़कर जामुन तोड़ने लगे। कुछ बच्चे नीचे खड़े होकर ही झटहा (लकड़ी का छोटा डंडा) और ढेले (ईंट, मिट्टी का टुकड़े) से मार-मारकर जामुन तोड़ने लगे।
बच्चों का जामुन तोड़ने का यह सिलसिला अभी शुरु ही था कि नीचे खड़े एक बच्चे को जामुन के उस पेड़ की एक ऊपरी डाल पर एक जोगी बैठा हुआ दिखाई दिया। उस जोगी को देखते ही उस बच्चे की चीख निकल गई। अब नीचे खड़े और बच्चे भी उस जोगी को देख लिए थे। पेड़पर चढ़े बच्चों की नजर जब उस जोगी पर पड़ी तो उनको साँप सूँघ गया और वे हड़बड़ाहट में नीचे उतरने लगे। पेड़ पर चढ़ा एक बच्चा अपने आप को सँभाल नहीं पाया और पेड़ पर से ही गिर पड़ा पर एकदम नीचे की एक डाल पर आकर अँटक गया। कुछ बच्चों ने देखा कि उसको उस जोगी ने थाम लिया है। उसके बाद उस जोगी ने उस बच्चे को नीचे उतारकर जमीन पर सुला दिया और खुद गायब हो गया।
ये पूरी घटना मात्र 5-7 मिनट के अंदर ही घटी थी। सभी बच्चों ने अब जोर-जोर से रोना भी शुरुकर दिया था और कुछ गाँव की ओर भी भाग गए थे। अब गाँव के कुछ बड़े लोग भी लाठी-भाला आदि लेकर उस जामुन के पेड़ के पास आ गए थे। उस बच्चे को बेहोशी हालत में उठाकर घर लाया गया। 2-3 घंटे के बाद वह पूरी तरह से ठीक हो गया था। जिन बच्चों ने गिरते हुए बच्चे को जोगी के द्वारा थामकर नीचे उतारकर सुलाते हुए देखा था; उन लोगों ने यह बात जब सभी को बताई तो उस जोगी के प्रति पूरे गाँव में श्रद्धा और आदर का भाव पैदा हो गया था।
इस घटना के बाद वह जोगी कभी फिर से दिखाई नहीं दिया पर उस बगीचे की ओर जानेवाले कुछ लोग बताते हैं कि आज भी कभी-कभी उस बगीचे में सारंगी की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। आज भी उस भूत-जोगी के बारे में बात करते हुए लोग थकते नहीं हैं और कहते हैं कि वे दिखाई इसलिए नहीं देते ताकि कोई डरे नहीं।
बोलिए जोगिया बाबा की जय..............
-प्रभाकर पाण्डेय
आज मैं जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ वह एक साधु स्वभाव के भूत की है। आज भी गाँवों में एक प्रकार के भिखमंगा आते हैं जिन्हें जोगी (=योगी) कहा जाता है। ये लोग विशेषकर भगवा वस्त्र धारण करते हैं या लाल। इनके हाथों में सारंगी नामक बाजा रहता है जिसे ये लोग भीख माँगते समय बजाते रहते हैं।
कुछ जोगी गाने में भी बहुत निपुण होते हैं और सारंगी बजाने के साथ ही साथ गाते भी हैं। ये जोगी अपने गीतों में राजा भरथरी से संबंधित गीत गाते हैं। राजा भरथरी के बारे में यह कहा जाता है कि वे एक बहुत ही अच्छे राजा थे और बाद में जोगी हो गए थे। जोगी के रूप में 'अलख निरंजन' का उदघोष करते हुए सर्वप्रथम वे भिक्षाटन के लिए अपने ही घर आए थे और अपनी माँ के हाथ से भिक्षा लिए थे। दरअसल इन जोगियों के बारे में कहा जाता है कि जोगी बनने के बाद इन्हें सर्वप्रथम अपनी माँ या पत्नी हो तो उससे भिक्षा लेनी पड़ती है और भिक्षा लेते समय इनकी पहचान छिपी होनी चाहिए तभी ये सच्चे जोगी साबित होंगे।
इन जोगियों के भिक्षाटन का तरीका भी अलग-अलग होता है। कुछ जोगी सारंगी बजाते हुए गाँव में प्रवेश करते हैं और घर-घर जाकर जो कुछ भी अन्न-पैसा मिलता है ले लेते हैं पर कुछ जोगी एक महीने तक किसी गाँव का फेरी लगाते हैं। इस फेरी के दौरान वह जोगी सारंगी बजाते और गाते हुए पूरे गाँव में दिन में एक बार घूम जाता है। इस फेरी के दौरान वह किसी के घर से कुछ भी नहीं लेता है पर एक महीना फेरी लगाने के बाद वह घर-घर जाकर कपड़े (पुराने भी) या थोड़ा अच्छी मात्रा में अनाज आदि वसूलता है और लोग राजी-खुशी देते भी हैं। इन कपड़ों से यो लोग गुदड़ी बनाते हैं या बेंच देते हैं।
सुनाना था क्या और मैं सुना रहा हूँ क्या??? अरे मुझे तो भूत जोगी की कहानी सुनानी थी और मैं लगा भिक्षुक जोगी की कथा अलापने। आइए, अब बिना लाग-लपेट के भूत जोगी की कहानी शुरु करते हैं :-
ये कहानी आज से 35-40 वर्ष पहले की है। हमारे गाँव के पुरनिया लोग बताते हैं कि आज से बहुत पहले ये जोगी लोग (भिखमंगे जोगी) एक बड़ी संख्या में दल बनाकर आते थे और गाँव के बाहर किसी बगीचे आदि में अपना डेरा डाल देते थे। आपस में क्षेत्र का बँटवाराकर ये लोग भिक्षाटन के लिए अलग-अलग गाँवों में जाते थे।
एकबार की बात है कि ऐसा ही एक जोगियों का दल हमारे गाँव के बाहर एक बगीचे में ठहरा हुआ था। इस बगीचे में उस समय जामुन, आम आदि के पेड़ों की अधिकता थी। (आज भी इस बगीचे में एक-आध जामुन के पेड़ हैं।) ये जोगी कहाँ के रहने वाले थे, इसकी जानकारी हमारे गाँव के किसी को भी नहीं थी और ना ही कोई इन लोगों के बारे में जानना चाहा था।
अभी इन जोगियों का उस बाग में डेरा जमाए दो-चार दिन ही हुए थे की एक अजीब घटना घट गई। एकदिन हमारे गाँव का एक व्यक्ति किसी कारणवस सुबह-सुबह उस बगीचे में गया। वह बगीचे में क्या देखता है कि जोगियों का दल नदारद है और एक जामुन के पेड़ पर से एक जोगी फँसरी लगाए लटक रहा है। जोगी की उस लटकती हुई उस लाश को देखकर वह आदमी चिल्लाते हुए गाँव की ओर भागा। उसकी चिल्लाहट सुनकर गाँव के काफी लोग इकट्ठा हो गए और एक साथ उस बगीचे में जामुन के पेड़ के पास आए। गाँव के पहरेदार ने थाने पर खबर की। पुलिस आई और उस जोगी की लाश को ले गई। गाँव के कुछ प्रबुद्ध लोगों के अनुसार जोगियों में किसी बात को लेकर बड़ा झगड़ा हो गया था और उन लोगों ने इस जोगी को मारकर यहाँ लटका दिया था और खुद फरार हो गए थे।
खैर ये तो रही उस जोगी के मरने की बात। समय धीरे-धीरे बीतने लगा और अचानक एक-आध महीने के बाद ही वह जोगी उसी जामुन के पेड़ पर बैठकर सारंगी बजाता हुआ कुछ लोगों को अकेले में दिख गया। जोगी के भूत होनेवाली बात पूरे गाँव में तेजी से फैल गई और उसके बाद कोई भी अकेले उस जामुन के पेड़ के पास नहीं गया। कुछ लोगों ने यह भी दावा किया कि कभी-कभी वह जोगी भिनसहरे सारंगी बजाते हुए उन्हें गाँव के बाहर एकांत में भी दिखा।
एकबार की बात है कि जामुन खाने के लिए बच्चों का एक दल दोपहर में उस बगीचे में गया। बच्चों ने आव देखा ना ताव और तीन चार बच्चे फटाक-फटाक उस जामुन पर चढ़कर जामुन तोड़ने लगे। कुछ बच्चे नीचे खड़े होकर ही झटहा (लकड़ी का छोटा डंडा) और ढेले (ईंट, मिट्टी का टुकड़े) से मार-मारकर जामुन तोड़ने लगे।
बच्चों का जामुन तोड़ने का यह सिलसिला अभी शुरु ही था कि नीचे खड़े एक बच्चे को जामुन के उस पेड़ की एक ऊपरी डाल पर एक जोगी बैठा हुआ दिखाई दिया। उस जोगी को देखते ही उस बच्चे की चीख निकल गई। अब नीचे खड़े और बच्चे भी उस जोगी को देख लिए थे। पेड़पर चढ़े बच्चों की नजर जब उस जोगी पर पड़ी तो उनको साँप सूँघ गया और वे हड़बड़ाहट में नीचे उतरने लगे। पेड़ पर चढ़ा एक बच्चा अपने आप को सँभाल नहीं पाया और पेड़ पर से ही गिर पड़ा पर एकदम नीचे की एक डाल पर आकर अँटक गया। कुछ बच्चों ने देखा कि उसको उस जोगी ने थाम लिया है। उसके बाद उस जोगी ने उस बच्चे को नीचे उतारकर जमीन पर सुला दिया और खुद गायब हो गया।
ये पूरी घटना मात्र 5-7 मिनट के अंदर ही घटी थी। सभी बच्चों ने अब जोर-जोर से रोना भी शुरुकर दिया था और कुछ गाँव की ओर भी भाग गए थे। अब गाँव के कुछ बड़े लोग भी लाठी-भाला आदि लेकर उस जामुन के पेड़ के पास आ गए थे। उस बच्चे को बेहोशी हालत में उठाकर घर लाया गया। 2-3 घंटे के बाद वह पूरी तरह से ठीक हो गया था। जिन बच्चों ने गिरते हुए बच्चे को जोगी के द्वारा थामकर नीचे उतारकर सुलाते हुए देखा था; उन लोगों ने यह बात जब सभी को बताई तो उस जोगी के प्रति पूरे गाँव में श्रद्धा और आदर का भाव पैदा हो गया था।
इस घटना के बाद वह जोगी कभी फिर से दिखाई नहीं दिया पर उस बगीचे की ओर जानेवाले कुछ लोग बताते हैं कि आज भी कभी-कभी उस बगीचे में सारंगी की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। आज भी उस भूत-जोगी के बारे में बात करते हुए लोग थकते नहीं हैं और कहते हैं कि वे दिखाई इसलिए नहीं देते ताकि कोई डरे नहीं।
बोलिए जोगिया बाबा की जय..............
-प्रभाकर पाण्डेय
SUNDAY, FEBRUARY 22, 2009
वह प्रेत जिसने कई सोखाओं को पीटा........
भूत-प्रेतों की लीला भी अपरम्पार होती है। कभी-कभी ये बहुत ही सज्जनता से पेश आते हैं तो कभी-कभी इनका उग्र रूप अच्छे-अच्छों की धोती गीली कर देता है। भूत-प्रेतों में बहुत कम ऐसे होते हैं जो आसानी से काबू में आ जाएँ नहीं तो अधिकतर सोखाओं-पंडितों को पानी पिलाकर रख देते हैं, उनकी नानी की याद दिला देते हैं।
आज की कहानी एक ऐसे प्रेत की है जिसको कोई भी सोखा-पंडित अपने काबू में नहीं कर पाए और ना ही वह प्रेत किसी देवी-देवता से ही डरता था। क्या वह प्रेत ही था या कोई और??? आइए जानने की कोशिश करते हैं। हमारी भी इस प्रेत को जानने की उत्कंठा अतितीव्र हो गई थी जब हमने पहली बार ही इसके बारे में सुना। दरअसल लोगों से पता चला कि इस प्रेत ने बहुत सारे सोखाओं-पंडितों को घिसरा-घिसराकर मारा और इतना ही नहीं जब इसे किसी देवी या देवता के स्थान पर लेकर जाया गया तो इसने उस देवी या देवता की भी खुलकर खिल्ली उड़ाई और उन्हें चुनौती दे डाली कि पहले पहचान, मैं कौन??? और शायद इस कौन का उत्तर किसी के पास नहीं था चाहें वह सोखा हो या किसी देवी या देवता का बहुत बड़ा भक्त या पुजारी।
अभी से आप मत सोंचिए की यह कौन था जिसका पता बड़े-बड़े सोखा और पंडित तक नहीं लगा पाए? क्या इस कहानी को पढ़ने के बाद भी इस रहस्य से परदा नहीं उठेगा? इस रहस्यमयी प्रेत के 'पहचान मैं कौन' पर से परदा उठेगा और यह परदा शायद वह प्रेत ही उठाएगा क्योंकि उससे अच्छा उसको कौन समझ सकता है। बस थोड़ा इंतजार कीजिए और कहानी को आगे तो बढ़ने दीजिए।
यह कहानी हमारे गाँव-जवार की नहीं है। ये कहानी है हमारे जिले से सटे कुशीनगर जिले के एक गाँव की। यह गाँव पडरौना के पास है। अब आप सोंच रहे होंगे कि यह कहानी जब मेरे जिले की नहीं है तो फिर मैं इसे कैसे सुना रहा हूँ। मान्यवर इस गाँव में मेरी रिस्तेदारी पड़ती है अस्तु इस कहानी को मैं भी अच्छी तरह से बयाँ कर सकता हूँ।
भूत-प्रेतों की तरह से इस कहानी को रहस्यमयी न बनाते हुए मैं सीधे अपनी बात पर आ जाता हूँ। इस गाँव में एक पंडीजी हैं जो बहुत ही सुशील, सभ्य और नेक इंसान हैं। यह कहानी घटिट होने से पहले तक ये पंडीजी एक बड़े माने-जाने ठीकेदार हुआ करते थे और ठीके के काम से अधिकतर घर से दूर ही रहा करते थे। हप्ते या पंद्रह दिन में इनका घर पर आना-जाना होता था। ये ठीका लेकर सड़क आदि बनवाने का काम करते थे। इनके घर के सभी लोग भी बड़े ही सुशिक्षित एवं सज्जन प्रकृति के आदमी हैं। इनकी पत्नी तो साधु स्वभाव की हैं और एक कुशल गृहिणी होने के साथ ही साथ बहुत ही धर्मनिष्ठ हैं।
एकबार की बात है कि पंडीजी ठीके के काम से बाहर गए हुए थे पर दो दिन के बाद ही उनको दो लोग उनके घर पर पहुँचाने आए। पंडीजी के घरवालों को उन दो व्यक्तियों ने बताया कि पता नहीं क्यों कल से ही पंडीजी कुछ अजीब हरकत कर रहे हैं। जैसे कल रात को सात मजदूरों ने अपने लिए खाना बनाया था और ये जिद करके उनलोगों के साथ ही खाना खाने बैठे पर मजदूरों ने कहा कि पंडीजी पहले आप खा लें फिर हम खाएँगे। और इसके बाद जब ये खाना खाने बैठे तो सातों मजदूरो का खाना अकेले खा गए और तो और ये खाना भी आदमी जैसा नहीं निशाचरों जैसा खा रहे थे। उसके बाद दो मजदूर तो डरकर वहाँ से भाग ही गए। फिर हम लोगों को पता चला। उसके बाद हम लोग भी वहाँ पहुँचे और इनको किसी तरह सुलाए और सुबह होते ही इनको पहुँचाने के लिए निकल पड़े।
इसके बाद वे दोनों व्यक्ति चले गए और पंडीजी भी आराम से अपनी कोठरी में चले गए। कुछ देर के बाद पंडीजी लुँगी लपेटे घर से बाहर आए और घरवालों के मना करने के बावजूद भी खेतों की ओर निकल गए। घर का एक व्यक्ति भी (इनके छोटे भाई) चुपके से इनके पीछे-पीछे हो लिया। जब पंडीजी गाँव से बाहर निकले तो अपने ही आम के बगीचे में चले गए। आम के बगीचे में पहुँचकर कुछ समय तो पंडीजी टहलते रहे पर पता नहीं अचानक उनको क्या हुआ कि आम की नीचे झुलती हुई मोटी-मोटी डालियों को ऐसे टोड़ने लगे जैसे हनुमान का बल उनमें आ गया हो। डालियों के टूटने की आवाज सुनकर इनके छोटे भाई दौड़कर बगीचे में पहुँचे और इनको ऐसा करने से रोकने लगे। जब इनके छोटे भाई ने बहुत ही मान-मनौवल की तब पंडीजी थोड़ा शांत हुए और घर पर वापस आ गए।
इस घटना के बाद तो पंडीजी के पूरे परिवार के साथ ही साथ इनका पूरा गाँव भी संशय में जीने लगा। एक दिन फिर क्या हुआ की पंडीजी अपनी ही कोठरी में बैठकर अपने बच्चे को पढ़ा रहे थे और इनकी पत्नी वहीं बैठकर रामायण पढ़ रही थीं तभी इनकी पत्नी क्या देखती हैं कि पंडीजी की शरीर फूलती जा रही है और चेहरा भी क्रोध से लाल होता जा रहा है। अभी पंडीजी की पत्नी कुछ समझती तबतक पंडीजी अपने ही बेटे का सिर अपने मुँह में लेकर ऐसा लग रहा था कि जैसे चबा जाएँगे पर इनकी पत्नी डरी नहीं और सभ्य भाषा में बच्चे को छोड़ने की विनती कीं। अचानक पंडीजी बच्चे का सिर मुँह से निकालकर शांत होने लगे और रोते बच्चे का सिर सहलाने लगे।
इस घटना के बाद तो पंडीजी के घरवालों की चैन और नींद ही हराम हो गई। वे लोग पूजा-पाठ करवाने के साथ ही साथ कइ सारे डाक्टरों से संपर्क भी किए। यहाँ तक कि उन्हे कई बड़े-बड़े अस्पतालों में दिखाया गया पर डाक्टरों की कोई भी दवा काम नहीं की और इधर एक-दो दिन पर पंडीजी कोई न कोई भयानक कार्य करके सबको सकते में डालते ही रहे। डाक्टरों से दिखाने का सिलसिला लगभग 2 महीने तक चलता रहा पर पंडीजी के हालत में सुधार नाममात्र भी नहीं हुआ।
हाँ पर अब सबके समझ में एक बात आ गई थी और वह यह कि जब भी पंडीजी की शरीर फूलने लगती थी और उनका चेहरा तमतमाने लगता था तो घर वाले उनकी पत्नी को बुला लाते थे और पंडीजी अपनी पत्नी को देखते ही शांत हो जाते थे।
एकदिन पंडीजी की पत्नी पूजा कर रही थीं तभी पंडीजी वहाँ आ गए और अपनी पत्नी से हँसकर पूछे कि तुम पूजा क्यों कर रही हो? पंडीजी की पत्नी ने कहा कि आप अच्छा हो जाएँ , इसलिए। अपनी पत्नी की बात सुनकर पंडीजी ठहाका मार कर हँसने लगे और हँसते-हँसते अचानक बोल पड़े की कितना भी पूजा-पाठ कर लो पर मैं इसे छोड़नेवाला नहीं हूँ अगर मैं इसे छोड़ुँगा तो इसे इस लोक से भेजने के बाद ही। पंडीजी की यह बात सुनकर पंडीजी की पत्नी सहमीं तो जरूर पर उन्होंने हिम्मत करके पूछा आप कौन हैं और मेरे पति ने आपका क्या बिगाड़ा हैं? इसपर पंडीजी ने कहा कि मैं कौन हूँ यह मैं नहीं जानता और इसने मेरा क्या बिगाड़ा है मैं यह भी नहीं बताऊँगा।
पंडीजी की पत्नी ने जब यह बात अपने घरवालों को बताई तो पंडीजी के घरवालों ने उस जवार में जितने सोखा-पंडित हैं उन सबसे संपर्क करना शुरु किया। पहले तो कुछ सोखा-पंडितों ने झाड़-फूँक किया पर कुछ फायदा नहीं हुआ। एकदिन पंडीजी के घरवालों ने पंडीजी को लेकर उसी जवार (क्षेत्र) के एक नामी सोखा के पास पहुँचे। सोखाबाबा कुछ मंत्र बुदबुदाए और पंडीजी की ओर देखते हुए बोले कि तुम चाहें कोई भी हो पर तुम्हें इसे छोड़कर जाना ही होगा नहीं तो मैं तुम्हें जलाकर भस्म कर दूँगा। जब सोखाबाबा ने भस्म करने की बात कही तो पंडीजी का चेहरा तमतमा उठा और वे वहीं उस सोखा को कपड़े की तरह पटक-पटककर लगे मारने। सोखा की सारी शेखी रफूचक्कर हो गई थी और वह गिड़गिड़ाने लगा था। फिर पंडीजी की पत्नी ने बीच-बचाव किया और सोखा की जान बची।
पंडीजी द्वारा सोखा के पिटाई की खबर आग की तरह पूरे जवार क्या कई जिलों में फैल गई। अब तो कोई सोखा या पंडित उस पंडीजी से मिलना तो दूर उनका नाम सुनकर ही काँपने लगता था। इसी दौरान पंडीजी को लेकर एक देवी माँ के स्थान पर पहुँचा गया पर देवी माँ(देवी माँ जिस महिला के ऊपर वास करती थीं उस महिला ने देवी-वास के समय) ने साफ मना कर दिया कि वे ऐसे दुष्ट और असभ्य व्यक्ति के मुँह भी लगना नहीं चाहतीं। पंडीजी उस स्थान पर पहुँचकर मुस्कुरा रहे थे और अपनी पत्नी से बोले की जो देवी मेरे सामने आने से घबरा रही है वह मुझे क्या भगाएगी? देवी माँ ने पंडीजी के घरवालों से कहा कि यह कौन है यह भी पहचानना मुश्किल है। आप लोग इसे लेकर बड़े-बड़े तीर्थ-स्थानों पर जाइए हो सकता है कि यह इस पंडीजी को छोड़ दे।
इसके बाद पंडीजी के घरवाले पंडीजी को लेकर बहुत सारे तीर्थ स्थानों (जैसे मैहर, विंध्याचल, काशी, थावें, कुछ नामी मजार आदि) पर गए पर कुछ भी फायदा नहीं हुआ। यहाँ तक की अब पंडीजी अपने घरवालों के साथ इन तीर्थों पर आसानी से जाते रहे और घूमते रहे। अधिकतर तीर्थ-स्थान घूमाने के बाद भी जब वह प्रेत पंडीजी को नहीं छोड़ा तो पंडीजी के घरवाले घर पर ही प्रतिदिन विधिवत पूजा-पाठ कराने लगे। पंडीजी की पत्नी प्रतिदिन उपवास रखकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करने लगीं।
एक दिन पंडीजी अपने घरवालों को अपने पास बुलाए और बोले की आप सभी लोग खेतों में जाकर कम से कम एक-एक पीपल का पेड़ लगा दीजिए। पंडीजी की पत्नी बोल पड़ी कि अगर आपकी यही इच्छा है तो एक-एक क्या हम लोग ग्यारह-ग्यारह पीपल का पेड़ लगाएँगे। इसके बाद पंडीजी के घरवाले पंडीजी को साथ लेकर उसी दिन खेतों में गए और इधर-उधर से खोजखाज कर एक-एक पीपल का पेड़ लगाए और पंडीजी से बोले कि हमलोग बराबर पीपल का पेड़ लगाते रहेंगे।
इस घटना के बाद पंडीजी थोड़ा शांत रहने लगे थे। अब वे अपने घर का छोटा-मोटा काम भी करने लगे थे। एक दिन पंडीजी के बड़े भाई घर के दरवाजे पर लकड़ी फाड़ रहे थे। पंडीजी वहाँ पहुँचकर टाँगी अपने हाथ में ले लिए और देखते ही देखते लकड़ी की तीन मोटी सिल्लियों को फाड़ दिए। शायद इन तीनों सिल्लियों को फाड़ने में उनके भाई महीनों लगाते।
एक दिन लगभग सुबह के चार बजे होंगे कि पंडीजी ने अपनी पत्नी को जगाया और बोल पड़े, "मैं जा रहा हूँ।" पंडीजी की पत्नी बोल पड़ी, "अभी तो रात है और इस रात में आप कहाँ जा रहें हैं?" अपनी पत्नी की यह बात सुनकर पंडीजी हँसे और बोले, "मैं जा रहा हूँ और वह भी अकेले। तेरे सुहाग को तेरे पास छोड़कर। अब मैं तेरे पति को और तुम लोगों को कभी तंग नहीं करूँगा। तूँ जल्दी से अपने पूरे घरवालों को जगवाओ ताकि जाने से पहले मैं उन सबसे भी मिल लूँ।" पंडीजी के इतना कहते ही पंडीजी की पत्नी के आँखों से झर-झर-झर आँसू झरने लगे और वे पंडीजी का पैर पकड़कर खूब तेज रोने लगीं। अब तो पंडीजी के पत्नी के रोने की आवाज सुनकर घर के लोग ऐसे ही भयभीत हो गए और दौड़-भागकर पंडीजी के कमरे में पहुँचे। अरे यह क्या पंडीजी के कमरे का माहौल तो एकदम अच्छा था क्योंकि पंडीजी तो मुस्कुराए जा रहे थे। घरवालों ने पंडीजी की पत्नी को चुप कराया और रोने का कारण पूछा। पंडीजी की पत्नी के बोलने से पहले ही पंडीजी स्वयं बोल पड़े की अब मैं सदा सदा के लिए आपके घर के इस सदस्य (पंडीजी) को छोड़कर जा रहा हूँ। अब आपलोगों को कष्ट देने कभी नहीं आऊँगा।
पंडीजी के इतना कहते ही पंडीजी की पत्नी बोल पड़ी, "आप जो भी हों, मेरी गल्तियों को क्षमा करेंगे, क्या मैं जान सकती हूँ की आप कौन हैं और मेरे पति को क्यों पकड़ रखे थे?" इतना सुनते ही पंडीजी बहुत जोर से हँसे और बोले मैं ब्रह्म-प्रेत (बरम-पिचाश) हूँ। मेरा कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता और तेरे पति ने उसी पीपल के पेड़ को कटवा दिया था जिसपर मैं हजारों वर्षों से रहा करता था। इसने मेरा घर ही उजाड़ दिया था इसलिए मैंने भी इसको बर्बाद करने की ठान ली थी पर तुम लोगों की अच्छाई ने मुझे ऐसा करने से रोक लिया।
इस घटना के बाद से वे ब्रह्म-प्रेत महराजजी उस पंडीजी को छोड़कर सदा-सदा के लिए जा चुके हैं। आज पंडीजी एवं उनका परिवार एकदम खुशहाल और सुख-समृद्ध है। पर ब्रह्म-प्रेत महराज के जाने के बाद भी अगर कुछ बचा है तो उनकी यादें और विशेषकर उन सोखाओं के जेहन में जिनका पाला इस ब्रह्म-प्रेतजी से पड़ा था और जिसके चलते इन सोखाओं ने अपनी सोखागिरा छोड़ दी थी।
एक निवेदन करता हूँ प्रेत बनकर नहीं आदमी बनकर। एक तो पेड़ काटें ही नहीं और अगर मजबूरी में काटना भी पड़ जाए तो एक के बदले दो लगा दीजिए। ताकि मेरा घर बचा रहे और आप लोगों का भी। क्योंकि अगर ऐसे ही पेड़ कटते रहे तो एक दिन प्रकृति असंतुलित हो जाएगी और शायद न आप बचेंगे न आपका घर भी। (एक पेड़ सौ पुत्र समाना, एक तो काटना नहीं और अगर काटना ही हो तो उसके पहले दस-बीस लगाना।)
बोलिए बजरंग बली की जय।
(मान्यवर यह भी कहानी ही है और वह भी सुनी हुई।)
-प्रभाकर पाण्डेय
आज की कहानी एक ऐसे प्रेत की है जिसको कोई भी सोखा-पंडित अपने काबू में नहीं कर पाए और ना ही वह प्रेत किसी देवी-देवता से ही डरता था। क्या वह प्रेत ही था या कोई और??? आइए जानने की कोशिश करते हैं। हमारी भी इस प्रेत को जानने की उत्कंठा अतितीव्र हो गई थी जब हमने पहली बार ही इसके बारे में सुना। दरअसल लोगों से पता चला कि इस प्रेत ने बहुत सारे सोखाओं-पंडितों को घिसरा-घिसराकर मारा और इतना ही नहीं जब इसे किसी देवी या देवता के स्थान पर लेकर जाया गया तो इसने उस देवी या देवता की भी खुलकर खिल्ली उड़ाई और उन्हें चुनौती दे डाली कि पहले पहचान, मैं कौन??? और शायद इस कौन का उत्तर किसी के पास नहीं था चाहें वह सोखा हो या किसी देवी या देवता का बहुत बड़ा भक्त या पुजारी।
अभी से आप मत सोंचिए की यह कौन था जिसका पता बड़े-बड़े सोखा और पंडित तक नहीं लगा पाए? क्या इस कहानी को पढ़ने के बाद भी इस रहस्य से परदा नहीं उठेगा? इस रहस्यमयी प्रेत के 'पहचान मैं कौन' पर से परदा उठेगा और यह परदा शायद वह प्रेत ही उठाएगा क्योंकि उससे अच्छा उसको कौन समझ सकता है। बस थोड़ा इंतजार कीजिए और कहानी को आगे तो बढ़ने दीजिए।
यह कहानी हमारे गाँव-जवार की नहीं है। ये कहानी है हमारे जिले से सटे कुशीनगर जिले के एक गाँव की। यह गाँव पडरौना के पास है। अब आप सोंच रहे होंगे कि यह कहानी जब मेरे जिले की नहीं है तो फिर मैं इसे कैसे सुना रहा हूँ। मान्यवर इस गाँव में मेरी रिस्तेदारी पड़ती है अस्तु इस कहानी को मैं भी अच्छी तरह से बयाँ कर सकता हूँ।
भूत-प्रेतों की तरह से इस कहानी को रहस्यमयी न बनाते हुए मैं सीधे अपनी बात पर आ जाता हूँ। इस गाँव में एक पंडीजी हैं जो बहुत ही सुशील, सभ्य और नेक इंसान हैं। यह कहानी घटिट होने से पहले तक ये पंडीजी एक बड़े माने-जाने ठीकेदार हुआ करते थे और ठीके के काम से अधिकतर घर से दूर ही रहा करते थे। हप्ते या पंद्रह दिन में इनका घर पर आना-जाना होता था। ये ठीका लेकर सड़क आदि बनवाने का काम करते थे। इनके घर के सभी लोग भी बड़े ही सुशिक्षित एवं सज्जन प्रकृति के आदमी हैं। इनकी पत्नी तो साधु स्वभाव की हैं और एक कुशल गृहिणी होने के साथ ही साथ बहुत ही धर्मनिष्ठ हैं।
एकबार की बात है कि पंडीजी ठीके के काम से बाहर गए हुए थे पर दो दिन के बाद ही उनको दो लोग उनके घर पर पहुँचाने आए। पंडीजी के घरवालों को उन दो व्यक्तियों ने बताया कि पता नहीं क्यों कल से ही पंडीजी कुछ अजीब हरकत कर रहे हैं। जैसे कल रात को सात मजदूरों ने अपने लिए खाना बनाया था और ये जिद करके उनलोगों के साथ ही खाना खाने बैठे पर मजदूरों ने कहा कि पंडीजी पहले आप खा लें फिर हम खाएँगे। और इसके बाद जब ये खाना खाने बैठे तो सातों मजदूरो का खाना अकेले खा गए और तो और ये खाना भी आदमी जैसा नहीं निशाचरों जैसा खा रहे थे। उसके बाद दो मजदूर तो डरकर वहाँ से भाग ही गए। फिर हम लोगों को पता चला। उसके बाद हम लोग भी वहाँ पहुँचे और इनको किसी तरह सुलाए और सुबह होते ही इनको पहुँचाने के लिए निकल पड़े।
इसके बाद वे दोनों व्यक्ति चले गए और पंडीजी भी आराम से अपनी कोठरी में चले गए। कुछ देर के बाद पंडीजी लुँगी लपेटे घर से बाहर आए और घरवालों के मना करने के बावजूद भी खेतों की ओर निकल गए। घर का एक व्यक्ति भी (इनके छोटे भाई) चुपके से इनके पीछे-पीछे हो लिया। जब पंडीजी गाँव से बाहर निकले तो अपने ही आम के बगीचे में चले गए। आम के बगीचे में पहुँचकर कुछ समय तो पंडीजी टहलते रहे पर पता नहीं अचानक उनको क्या हुआ कि आम की नीचे झुलती हुई मोटी-मोटी डालियों को ऐसे टोड़ने लगे जैसे हनुमान का बल उनमें आ गया हो। डालियों के टूटने की आवाज सुनकर इनके छोटे भाई दौड़कर बगीचे में पहुँचे और इनको ऐसा करने से रोकने लगे। जब इनके छोटे भाई ने बहुत ही मान-मनौवल की तब पंडीजी थोड़ा शांत हुए और घर पर वापस आ गए।
इस घटना के बाद तो पंडीजी के पूरे परिवार के साथ ही साथ इनका पूरा गाँव भी संशय में जीने लगा। एक दिन फिर क्या हुआ की पंडीजी अपनी ही कोठरी में बैठकर अपने बच्चे को पढ़ा रहे थे और इनकी पत्नी वहीं बैठकर रामायण पढ़ रही थीं तभी इनकी पत्नी क्या देखती हैं कि पंडीजी की शरीर फूलती जा रही है और चेहरा भी क्रोध से लाल होता जा रहा है। अभी पंडीजी की पत्नी कुछ समझती तबतक पंडीजी अपने ही बेटे का सिर अपने मुँह में लेकर ऐसा लग रहा था कि जैसे चबा जाएँगे पर इनकी पत्नी डरी नहीं और सभ्य भाषा में बच्चे को छोड़ने की विनती कीं। अचानक पंडीजी बच्चे का सिर मुँह से निकालकर शांत होने लगे और रोते बच्चे का सिर सहलाने लगे।
इस घटना के बाद तो पंडीजी के घरवालों की चैन और नींद ही हराम हो गई। वे लोग पूजा-पाठ करवाने के साथ ही साथ कइ सारे डाक्टरों से संपर्क भी किए। यहाँ तक कि उन्हे कई बड़े-बड़े अस्पतालों में दिखाया गया पर डाक्टरों की कोई भी दवा काम नहीं की और इधर एक-दो दिन पर पंडीजी कोई न कोई भयानक कार्य करके सबको सकते में डालते ही रहे। डाक्टरों से दिखाने का सिलसिला लगभग 2 महीने तक चलता रहा पर पंडीजी के हालत में सुधार नाममात्र भी नहीं हुआ।
हाँ पर अब सबके समझ में एक बात आ गई थी और वह यह कि जब भी पंडीजी की शरीर फूलने लगती थी और उनका चेहरा तमतमाने लगता था तो घर वाले उनकी पत्नी को बुला लाते थे और पंडीजी अपनी पत्नी को देखते ही शांत हो जाते थे।
एकदिन पंडीजी की पत्नी पूजा कर रही थीं तभी पंडीजी वहाँ आ गए और अपनी पत्नी से हँसकर पूछे कि तुम पूजा क्यों कर रही हो? पंडीजी की पत्नी ने कहा कि आप अच्छा हो जाएँ , इसलिए। अपनी पत्नी की बात सुनकर पंडीजी ठहाका मार कर हँसने लगे और हँसते-हँसते अचानक बोल पड़े की कितना भी पूजा-पाठ कर लो पर मैं इसे छोड़नेवाला नहीं हूँ अगर मैं इसे छोड़ुँगा तो इसे इस लोक से भेजने के बाद ही। पंडीजी की यह बात सुनकर पंडीजी की पत्नी सहमीं तो जरूर पर उन्होंने हिम्मत करके पूछा आप कौन हैं और मेरे पति ने आपका क्या बिगाड़ा हैं? इसपर पंडीजी ने कहा कि मैं कौन हूँ यह मैं नहीं जानता और इसने मेरा क्या बिगाड़ा है मैं यह भी नहीं बताऊँगा।
पंडीजी की पत्नी ने जब यह बात अपने घरवालों को बताई तो पंडीजी के घरवालों ने उस जवार में जितने सोखा-पंडित हैं उन सबसे संपर्क करना शुरु किया। पहले तो कुछ सोखा-पंडितों ने झाड़-फूँक किया पर कुछ फायदा नहीं हुआ। एकदिन पंडीजी के घरवालों ने पंडीजी को लेकर उसी जवार (क्षेत्र) के एक नामी सोखा के पास पहुँचे। सोखाबाबा कुछ मंत्र बुदबुदाए और पंडीजी की ओर देखते हुए बोले कि तुम चाहें कोई भी हो पर तुम्हें इसे छोड़कर जाना ही होगा नहीं तो मैं तुम्हें जलाकर भस्म कर दूँगा। जब सोखाबाबा ने भस्म करने की बात कही तो पंडीजी का चेहरा तमतमा उठा और वे वहीं उस सोखा को कपड़े की तरह पटक-पटककर लगे मारने। सोखा की सारी शेखी रफूचक्कर हो गई थी और वह गिड़गिड़ाने लगा था। फिर पंडीजी की पत्नी ने बीच-बचाव किया और सोखा की जान बची।
पंडीजी द्वारा सोखा के पिटाई की खबर आग की तरह पूरे जवार क्या कई जिलों में फैल गई। अब तो कोई सोखा या पंडित उस पंडीजी से मिलना तो दूर उनका नाम सुनकर ही काँपने लगता था। इसी दौरान पंडीजी को लेकर एक देवी माँ के स्थान पर पहुँचा गया पर देवी माँ(देवी माँ जिस महिला के ऊपर वास करती थीं उस महिला ने देवी-वास के समय) ने साफ मना कर दिया कि वे ऐसे दुष्ट और असभ्य व्यक्ति के मुँह भी लगना नहीं चाहतीं। पंडीजी उस स्थान पर पहुँचकर मुस्कुरा रहे थे और अपनी पत्नी से बोले की जो देवी मेरे सामने आने से घबरा रही है वह मुझे क्या भगाएगी? देवी माँ ने पंडीजी के घरवालों से कहा कि यह कौन है यह भी पहचानना मुश्किल है। आप लोग इसे लेकर बड़े-बड़े तीर्थ-स्थानों पर जाइए हो सकता है कि यह इस पंडीजी को छोड़ दे।
इसके बाद पंडीजी के घरवाले पंडीजी को लेकर बहुत सारे तीर्थ स्थानों (जैसे मैहर, विंध्याचल, काशी, थावें, कुछ नामी मजार आदि) पर गए पर कुछ भी फायदा नहीं हुआ। यहाँ तक की अब पंडीजी अपने घरवालों के साथ इन तीर्थों पर आसानी से जाते रहे और घूमते रहे। अधिकतर तीर्थ-स्थान घूमाने के बाद भी जब वह प्रेत पंडीजी को नहीं छोड़ा तो पंडीजी के घरवाले घर पर ही प्रतिदिन विधिवत पूजा-पाठ कराने लगे। पंडीजी की पत्नी प्रतिदिन उपवास रखकर दुर्गा सप्तशती का पाठ करने लगीं।
एक दिन पंडीजी अपने घरवालों को अपने पास बुलाए और बोले की आप सभी लोग खेतों में जाकर कम से कम एक-एक पीपल का पेड़ लगा दीजिए। पंडीजी की पत्नी बोल पड़ी कि अगर आपकी यही इच्छा है तो एक-एक क्या हम लोग ग्यारह-ग्यारह पीपल का पेड़ लगाएँगे। इसके बाद पंडीजी के घरवाले पंडीजी को साथ लेकर उसी दिन खेतों में गए और इधर-उधर से खोजखाज कर एक-एक पीपल का पेड़ लगाए और पंडीजी से बोले कि हमलोग बराबर पीपल का पेड़ लगाते रहेंगे।
इस घटना के बाद पंडीजी थोड़ा शांत रहने लगे थे। अब वे अपने घर का छोटा-मोटा काम भी करने लगे थे। एक दिन पंडीजी के बड़े भाई घर के दरवाजे पर लकड़ी फाड़ रहे थे। पंडीजी वहाँ पहुँचकर टाँगी अपने हाथ में ले लिए और देखते ही देखते लकड़ी की तीन मोटी सिल्लियों को फाड़ दिए। शायद इन तीनों सिल्लियों को फाड़ने में उनके भाई महीनों लगाते।
एक दिन लगभग सुबह के चार बजे होंगे कि पंडीजी ने अपनी पत्नी को जगाया और बोल पड़े, "मैं जा रहा हूँ।" पंडीजी की पत्नी बोल पड़ी, "अभी तो रात है और इस रात में आप कहाँ जा रहें हैं?" अपनी पत्नी की यह बात सुनकर पंडीजी हँसे और बोले, "मैं जा रहा हूँ और वह भी अकेले। तेरे सुहाग को तेरे पास छोड़कर। अब मैं तेरे पति को और तुम लोगों को कभी तंग नहीं करूँगा। तूँ जल्दी से अपने पूरे घरवालों को जगवाओ ताकि जाने से पहले मैं उन सबसे भी मिल लूँ।" पंडीजी के इतना कहते ही पंडीजी की पत्नी के आँखों से झर-झर-झर आँसू झरने लगे और वे पंडीजी का पैर पकड़कर खूब तेज रोने लगीं। अब तो पंडीजी के पत्नी के रोने की आवाज सुनकर घर के लोग ऐसे ही भयभीत हो गए और दौड़-भागकर पंडीजी के कमरे में पहुँचे। अरे यह क्या पंडीजी के कमरे का माहौल तो एकदम अच्छा था क्योंकि पंडीजी तो मुस्कुराए जा रहे थे। घरवालों ने पंडीजी की पत्नी को चुप कराया और रोने का कारण पूछा। पंडीजी की पत्नी के बोलने से पहले ही पंडीजी स्वयं बोल पड़े की अब मैं सदा सदा के लिए आपके घर के इस सदस्य (पंडीजी) को छोड़कर जा रहा हूँ। अब आपलोगों को कष्ट देने कभी नहीं आऊँगा।
पंडीजी के इतना कहते ही पंडीजी की पत्नी बोल पड़ी, "आप जो भी हों, मेरी गल्तियों को क्षमा करेंगे, क्या मैं जान सकती हूँ की आप कौन हैं और मेरे पति को क्यों पकड़ रखे थे?" इतना सुनते ही पंडीजी बहुत जोर से हँसे और बोले मैं ब्रह्म-प्रेत (बरम-पिचाश) हूँ। मेरा कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता और तेरे पति ने उसी पीपल के पेड़ को कटवा दिया था जिसपर मैं हजारों वर्षों से रहा करता था। इसने मेरा घर ही उजाड़ दिया था इसलिए मैंने भी इसको बर्बाद करने की ठान ली थी पर तुम लोगों की अच्छाई ने मुझे ऐसा करने से रोक लिया।
इस घटना के बाद से वे ब्रह्म-प्रेत महराजजी उस पंडीजी को छोड़कर सदा-सदा के लिए जा चुके हैं। आज पंडीजी एवं उनका परिवार एकदम खुशहाल और सुख-समृद्ध है। पर ब्रह्म-प्रेत महराज के जाने के बाद भी अगर कुछ बचा है तो उनकी यादें और विशेषकर उन सोखाओं के जेहन में जिनका पाला इस ब्रह्म-प्रेतजी से पड़ा था और जिसके चलते इन सोखाओं ने अपनी सोखागिरा छोड़ दी थी।
एक निवेदन करता हूँ प्रेत बनकर नहीं आदमी बनकर। एक तो पेड़ काटें ही नहीं और अगर मजबूरी में काटना भी पड़ जाए तो एक के बदले दो लगा दीजिए। ताकि मेरा घर बचा रहे और आप लोगों का भी। क्योंकि अगर ऐसे ही पेड़ कटते रहे तो एक दिन प्रकृति असंतुलित हो जाएगी और शायद न आप बचेंगे न आपका घर भी। (एक पेड़ सौ पुत्र समाना, एक तो काटना नहीं और अगर काटना ही हो तो उसके पहले दस-बीस लगाना।)
बोलिए बजरंग बली की जय।
(मान्यवर यह भी कहानी ही है और वह भी सुनी हुई।)
-प्रभाकर पाण्डेय
THURSDAY, FEBRUARY 19, 2009
और वह भूत बनकर लोगों को सताने लगा.......
पिछली कहानी में हमने देखा कि किस प्रकार आधा दर्जन बुड़ुआओं (भूतों) ने मिलकर एक पंडीजी को गड्ढे में धाँस दिया था और उनको धाँसने में जिस बुड़ुआ ने सबसे अधिक अपने बल और बुद्धि का प्रयोग किया था उसका नाम गुलाब था। मैंने पिछली कहानी में यह भी बता दिया था की जो प्राणी पानी में डूबकर मरता है वह बुड़ुआ (एक प्रकार का भूत) बन जाता है।
अब आइए 40-50 साल पुरानी इस कहानी के माध्यम से यह जानने की कोशिश करते हैं कि गुलाब कौन था और किस प्रकार वह बुड़ुआ (भूत) बन गया था।
स्वर्गीय (स्वर्गीय कहना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है क्योंकि अगर गुलाब स्वर्गीय हो गए तो फिर बुड़ुआ बनकर लोगों को सता क्यों रहे हैं- खैर भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।) गुलाब हमारे गाँव के ही रहने वाले थे और जब उन्होंने अपने इस क्षणभंगुर शरीर का त्याग किया उस समय उनकी उम्र लगभग 9-10 वर्ष रही होगी। वे बहुत ही कर्मठी लड़के थे। पढ़ने में तो बहुत कम रूचि रखते थे पर घर के कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। चउओं (मवेशियों) को चारा देने से लेकर उनको चराने, नहलाने, गोबर-गोहथारि आदि करने का काम वे बखूबी किया करते थे। वे खेती-किसानी में भी अपने घरवालों का हाथ बँटाते थे। उनका घर एक बड़े पोखरे के किनारे था। यह पोखरा गरमी में भी सूखता नहीं था और जब भी गुलाब को मौका मिलता इस पोखरे में डुबकी भी लगा आते। दरवाजे पर पोखरा होने का फायदा गुलाब ने छोटी ही उम्र में उठा लिया था और एक कुशल तैराक बन गए थे। आज गाँववालों ने इस पोखरे को भरकर घर-खलिहान आदि बना लिया है।
एकबार की बात है की असह्य गरमी पड़ रही थी और सूर्यदेव अपने असली रूप में तप रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वे पूरी धरती को तपाकर लाल कर देंगे। ऐसे दिन में खर-खर दुपहरिया (ठीक दोपहर) का समय था और गुलाब नाँद में सानी-पानी करने के बाद भैंस को खूँटे से खोलकर नाँद पर बाँधने के लिए आगे बढ़े। भैंस भी अत्यधिक गरमी से परेशान थी। भैंस का पगहा खोलते समय गुलाब ने बचपने(बच्चा तो थे ही) में भैंस का पगहा अपने हाथ में लपेट लिए। (इसको बचपना इसलिए कह रहा हूँ कि लोग किसी भी मवेशी का पगहा हाथ में लपेटकर नहीं रखते हैं क्योंकि अगर वह मवेशी किसी कारणबस भागना शुरुकर दिया तो उस व्यक्ति के जान पर बन आती है और वह भी उसके साथ घसीटते हुए खींचा चला जाता है क्योंकि पगहा हाथ में कस जाता है और हड़बड़ी में उसमें से हाथ निकालना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। ) जब गुलाब भैंस को लेकर नाँद की तरफ बढ़े तभी गरमी से बेहाल भैंस पोखरे की ओर भागी। गुलाब भैंस के अचानक पोखरे की ओर भागने से संभल नहीं सके और वे भी उसके साथ तेजी में खींचे चले गए। भैंस पोखरे के बीचोंबीच में पहुँचकर लगी खूब बोह (डूबने) लेने। चूँकि पोखरे के बीचोंबीच में गुलाब के तीन पोरसा (उनकी तंबाई के तिगुना) पानी था और बार-बार भैंस के बोह लेने से उन्हें साँस लेने में परेशानी होने लगी और वे उसी में डूब गए। हाथ बँधा और घबराए हुए होने की वजह से उनका तैरना भी काम नहीं आया।
2-3 घंटे तक भैंस पानी में बोह लेती रही और यह अभाग्य ही कहा जाएगा कि उस समय किसी और का ध्यान उस पोखरे की ओर नहीं गया। उनके घरवाले भी निश्चिंत थे क्योंकि ऐसी घटना का किसी को अंदेशा नहीं था। 2-3 घंटे के बाद जब भैंस को गरमी से पूरी तरह से राहत मिल गई तो वह गुलाब की लाश को खिंचते हुए पोखरे से बाहर आने लगी। जब भैंस लगभग पोखरे के किनारे पहुँच गई तो किसा व्यक्ति का ध्यान भैंस की ओर गया और वह चिल्लाना शुरु किया। उस व्यक्ति की चिल्लाहट सुनकर आस-पास के बहुत सारे लोग जमा हो गए। पर यह जानकर वहाँ शोक पसर गया कि कर्मठी गुलाब अब नहीं रहा। भैंस ने अपनी गरमी शांत करने के लिए एक निर्बोध बालक को मौत के मुँह में भेज दिया था।
इस घटना को घटे जब लगभग 5-6 साल बीत गए तो लोगों को उस पोखरे में बुड़ुवे (भूत) का एहसास होने लगा। गाँव में यह बात तेजी से फैल गई कि अब गुलाब जवान हो गया है और लोगों पर हमला भी करने लगा है। आज वह पोखरा समतल हो गया है, उसपर घर-खलिहान आदि बन गए हैं पर जबतक उसमें पानी था तबतक गुलाब उस पोखरे में अकेले नहानेवाले कई लोगों पर हमला कर चुका था। एक बार तो वह एक आदमी को खींचते हुए पानी के अंदर भी लेकर चला गया था पर संयोग से किसी महिला की नजर उसपर पड़ गई और उसकी चिल्लाहट सुनकर कुछ लोगों ने उस व्यक्ति की जान बचाई।
-प्रभाकर पाण्डेय
अब आइए 40-50 साल पुरानी इस कहानी के माध्यम से यह जानने की कोशिश करते हैं कि गुलाब कौन था और किस प्रकार वह बुड़ुआ (भूत) बन गया था।
स्वर्गीय (स्वर्गीय कहना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है क्योंकि अगर गुलाब स्वर्गीय हो गए तो फिर बुड़ुआ बनकर लोगों को सता क्यों रहे हैं- खैर भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।) गुलाब हमारे गाँव के ही रहने वाले थे और जब उन्होंने अपने इस क्षणभंगुर शरीर का त्याग किया उस समय उनकी उम्र लगभग 9-10 वर्ष रही होगी। वे बहुत ही कर्मठी लड़के थे। पढ़ने में तो बहुत कम रूचि रखते थे पर घर के कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। चउओं (मवेशियों) को चारा देने से लेकर उनको चराने, नहलाने, गोबर-गोहथारि आदि करने का काम वे बखूबी किया करते थे। वे खेती-किसानी में भी अपने घरवालों का हाथ बँटाते थे। उनका घर एक बड़े पोखरे के किनारे था। यह पोखरा गरमी में भी सूखता नहीं था और जब भी गुलाब को मौका मिलता इस पोखरे में डुबकी भी लगा आते। दरवाजे पर पोखरा होने का फायदा गुलाब ने छोटी ही उम्र में उठा लिया था और एक कुशल तैराक बन गए थे। आज गाँववालों ने इस पोखरे को भरकर घर-खलिहान आदि बना लिया है।
एकबार की बात है की असह्य गरमी पड़ रही थी और सूर्यदेव अपने असली रूप में तप रहे थे। ऐसा लग रहा था कि वे पूरी धरती को तपाकर लाल कर देंगे। ऐसे दिन में खर-खर दुपहरिया (ठीक दोपहर) का समय था और गुलाब नाँद में सानी-पानी करने के बाद भैंस को खूँटे से खोलकर नाँद पर बाँधने के लिए आगे बढ़े। भैंस भी अत्यधिक गरमी से परेशान थी। भैंस का पगहा खोलते समय गुलाब ने बचपने(बच्चा तो थे ही) में भैंस का पगहा अपने हाथ में लपेट लिए। (इसको बचपना इसलिए कह रहा हूँ कि लोग किसी भी मवेशी का पगहा हाथ में लपेटकर नहीं रखते हैं क्योंकि अगर वह मवेशी किसी कारणबस भागना शुरुकर दिया तो उस व्यक्ति के जान पर बन आती है और वह भी उसके साथ घसीटते हुए खींचा चला जाता है क्योंकि पगहा हाथ में कस जाता है और हड़बड़ी में उसमें से हाथ निकालना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। ) जब गुलाब भैंस को लेकर नाँद की तरफ बढ़े तभी गरमी से बेहाल भैंस पोखरे की ओर भागी। गुलाब भैंस के अचानक पोखरे की ओर भागने से संभल नहीं सके और वे भी उसके साथ तेजी में खींचे चले गए। भैंस पोखरे के बीचोंबीच में पहुँचकर लगी खूब बोह (डूबने) लेने। चूँकि पोखरे के बीचोंबीच में गुलाब के तीन पोरसा (उनकी तंबाई के तिगुना) पानी था और बार-बार भैंस के बोह लेने से उन्हें साँस लेने में परेशानी होने लगी और वे उसी में डूब गए। हाथ बँधा और घबराए हुए होने की वजह से उनका तैरना भी काम नहीं आया।
2-3 घंटे तक भैंस पानी में बोह लेती रही और यह अभाग्य ही कहा जाएगा कि उस समय किसी और का ध्यान उस पोखरे की ओर नहीं गया। उनके घरवाले भी निश्चिंत थे क्योंकि ऐसी घटना का किसी को अंदेशा नहीं था। 2-3 घंटे के बाद जब भैंस को गरमी से पूरी तरह से राहत मिल गई तो वह गुलाब की लाश को खिंचते हुए पोखरे से बाहर आने लगी। जब भैंस लगभग पोखरे के किनारे पहुँच गई तो किसा व्यक्ति का ध्यान भैंस की ओर गया और वह चिल्लाना शुरु किया। उस व्यक्ति की चिल्लाहट सुनकर आस-पास के बहुत सारे लोग जमा हो गए। पर यह जानकर वहाँ शोक पसर गया कि कर्मठी गुलाब अब नहीं रहा। भैंस ने अपनी गरमी शांत करने के लिए एक निर्बोध बालक को मौत के मुँह में भेज दिया था।
इस घटना को घटे जब लगभग 5-6 साल बीत गए तो लोगों को उस पोखरे में बुड़ुवे (भूत) का एहसास होने लगा। गाँव में यह बात तेजी से फैल गई कि अब गुलाब जवान हो गया है और लोगों पर हमला भी करने लगा है। आज वह पोखरा समतल हो गया है, उसपर घर-खलिहान आदि बन गए हैं पर जबतक उसमें पानी था तबतक गुलाब उस पोखरे में अकेले नहानेवाले कई लोगों पर हमला कर चुका था। एक बार तो वह एक आदमी को खींचते हुए पानी के अंदर भी लेकर चला गया था पर संयोग से किसी महिला की नजर उसपर पड़ गई और उसकी चिल्लाहट सुनकर कुछ लोगों ने उस व्यक्ति की जान बचाई।
-प्रभाकर पाण्डेय
जब भूतों ने उन्हें कीचड़ में धाँस दिया.........
भूत भी कई प्रकार के होते हैं। आज मैं भूतों की जो कहानी सुनाने जा रहा हूँ ओ बुड़ुआओं (एक प्रकार के भूत) के बारे में है। जब कोई व्यक्ति किसी कारण बस पानी में डूबकर मर जाता है तो वह बुड़ुआ बन जाता है। बुड़ुआ बहुत ही खतरनाक होते हैं पर इनका बस केवल पानी में ही चलता है वह भी डूबाहभर (जिसमें कोई डूब सकता हो) पानी में।
हमारे तरफ गाँवों में जब खाटों (खटिया) में बहुत ही खटमल पड़ जाते हैं और खटमलमार दवा डालने के बाद भी वे नहीं मरते तो लोगों के पास इन रक्तचूषक प्राणियों से बचने का बस एक ही रास्ता बचता है और वह यह कि उस खटमली खाट को किसी तालाब, खंता (गड्ढा) आदि में पानी में डूबो दिया जाए। जब वह खटमली खाट 2-3 दिनतक पानी में ही छोड़ दी जाती है तो ये रक्तचूषक प्राणी या तो पानी में डूबकर मर जाते हैं या अपना रास्ता नाप लेते हैं और वह खाट पूरी तरह से खटमल-फ्री हो जाती है।
एकबार की बात है कि हमारे गाँव के ही एक पंडीजी एक गड्ढे (इस गड्ढे का निर्माण चिमनी के लिए ईंट पाथने के कारण हुआ है नहीं तो पहले यह समतल खेत हुआ करता था) में अपनी बँसखट (बाँस की खाट) को खटमल से निजात पाने के लिए डाल आए थे। बरसात के मौसम की अभी शुरुवात होने की वजह से इस गड्ढे में जाँघभर ही पानी था। यह गड्ढा गाँव के बाहर एक ऐसे बड़े बगीचे के पास है जिसमें बहुत सारी झाड़ियाँ उग आई हैं और इसको भयावह बना दी हैं साथ ही साथ यह गड्ढा भी बरसात में चारों ओर से मूँज आदि बड़े खर-पतवारों से ढक जाता है।
दो-तीन दिन के बाद वे पंडीजी अपनी बँसखट (बाँस की खाट) को लाने के लिए उस गड्ढे की ओर बढ़े। लगभग साम के 5 बज रहे थे और कुछ चरवाहे अपने पशुओं को लेकर गाँव की ओर प्रस्थान कर दिए थे पर अभी भी कुछ छोटे बच्चे और एक-दो महिलाएँ उस गड्ढे के पास के बगीचे में बकरियाँ आदि चरा रही थीं।
ऐसी बात नहीं है कि वे पंडीजी बड़े डेराभूत (डरनेवाले) हैं। वे तो बड़े ही निडर और मेहनती व्यक्ति हैं। रात-रात को वे अकेले ही गाँव से दूर अपने खेतों में सोया करते थे, सिंचाई किया करते थे। पर पता नहीं क्यों उस दिन उस पंडीजी के मन में थोड़ा भय व्याप्त था। अभी पहले यह कहानी पूरी कर लेते हैं फिर उस पंडीजी से ही जानने की कोशिश करेंगे कि उस दिन उनके मन में भय क्यों व्याप्त था?
उस गड्ढे के पास पहुँचकर जब पंडीजी अपनी बँसखट (बाँस की खाट) निकालने के लिए पानी में घुसे तो अचानक उनको लगा की कोई उनको पानी के अंदर खींचने की कोशिश कर रहा है पर वे तबतक हाथ में अपनी खाट को उठा चुके थे। अरे यह क्या इसके बाद वे कुछ कर न सके और न चाहते हुए भी थोड़ा और पानी के अंदर खींच लिए गए। अभी वे कुछ सोंचते तभी एक बुड़ुआ चिल्लाया, "अरे! तुम लोग देखते क्या हो टूट पड़ो नहीं तो यह बचकर निकल जाएगा और अब यह अकेले मेरे बस में नहीं आ रहा है।" तबतक एक और बुड़ुआ जो सूअर के रूप में था चिल्लाया, "हम इसको कैसे पकड़े, इसके कंधे से तो जनेऊ झूल रहा है।" इतना सुनते ही जो बुड़ुआ पंडीजी से हाथा-पाई करते हुए उन्हें पानी में खींचकर डूबाने की कोशिश कर रहा था वह फौरन ही हाथ बढ़ाकर उस पंडीजी के जनेऊ (यज्ञोपवीत) को खींचकर तोड़ दिया।
जनेऊ टूटते ही लगभग आधा दरजन बुड़ुआ जो पहले से ही वहाँ मौजूद थे उस पंडीजी पर टूट पड़े। अब पंडीजी की हिम्मत और बल दोनों जवाब देने लगे और बुड़ुआ बीस पड़ गए। बुड़ुआओं ने पंडीजी को और अंदर खींच लिया और उनको लगे वहीं पानी में धाँसने। पंडीजी और बुड़ुआओं के बीच ये जो सीन चल रहा था वह किसी बकरी के चरवाहे बच्चे ने देख लिया और चिल्लाया की बीरेंदर बाबा पानी में डूब रहे हैं। अब सभी बच्चे चिल्लाने लगे तबतक बुड़ुआओं ने पंडीजी (बीरेंदर बाबा) को उल्टाकर के कींचड़ में उनका सर धाँस दिया था और धाँसते ही चले जा रहे थे। पानी के ऊपर अब रह-रहकर पंडीजी (बीरेंदर बाबा) का पैर ही कभी-कभी दिखाई पड़ जाता था।
बच्चों की चिल्लाहट सुनकर तभी हमारे गाँव के श्री नेपाल सिंह वहाँ आ गए और एक-आध बड़े बच्चों के साथ गड्ढे में घुस गए। गड्ढे में घुसकर उन्होंने अचेत पंडीजी (बीरेंदर बाबा) को बाहर निकाला। पंडीजी के मुँह, कान, आँख और सर आदि में पूरी तरह से कीचड़ लगी हुई थी। अबतक आलम यह था कि हमारा लगभग आधा गाँव उस गड्ढे के पास जमा हो गया था। आनन-फानन में उस पंडीजी को नहलाया गया और खाट पर सुलाकर ही घर लाया गया। कुछ लोगों को लग रहा था कि पंडीजी अब बचेंगे नहीं पर अभी भी उनकी सँसरी (साँस) चल रही थी। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के डाक्टर आ चुके थे और पंडीजी का इलाज शुरु हो गया था। दो-तीन दिन तक पंडीजी (बीरेंदर बाबा) घर में खाट पर ही पड़े रहे और अक-बक बोलते रहे। 15-20 दिन के बाद धीरे-धीरे उनकी हालत में सुधार हुआ पर उनकी निडरता की वजह से उन पर इन दिनों में भूतों का छाया तो रहा पर कोई भूत (बुड़ुआ) उनपर हाबी नहीं हो पाया।
आज अगर कोई उस पंडीजी (बीरेंदर बाबा) से पूछता है कि उस दिन क्या हुआ था तो वे बताते हैं कि दरअसल इस घटना के लगभग एक हप्ते पहले से ही कुछ भूत उनके पीछे पड़ गए थे क्योंकि वे कई बार गाँव से दूर खेत-बगीचे आदि में सुर्ती या कलेवा आदि करते थे तो इन भूतों को नहीं चढ़ाते थे। इस कारण से कुछ भूत उनके पीछे ही लग गए थे जिसकी वजह से वे उन दिनों में थोड़ा डरे-सहमे हुए रहते थे।
पंडीजी आगे बताते हैं कि जो बुड़ुआ पहले उनको पकड़ा वह गुलाब (हमारे गाँव का ही एक ब्राह्मण कुमार जो एक बड़े पोखर में डूबकर मर गया था) था क्योंकि दूसरे किसी भी बुड़ुवे में मेरा जनेऊ तोड़ने की हिम्मत तो दूर पास आने की भी हिम्मत नहीं थी पर जब गुलाब (ब्राह्मण बुड़ुए का नाम) ने जनेऊ तोड़ दिया तो सभी बुड़ुओं ने हमला बोलकर मुझे धाँस दिया।
अगली कहानी में मैं गुलाब के डूबने और उसके बुड़ुआ बनने की बात बताऊँगा।
भूत-पिचास निकट नहीं आवें, महाबीर जब नाम सुनावें।
जय बजरंगबली, जय हनुमान।
ये कहानी सच्ची है या झूठी यह मुझे नहीं पता पर आज भी मेरे गाँव के लोग इस घटना को सत्य ही मानते हैं और उन लोगों की नजर में आज भी कुछ तालाबों में बुड़ुआओं का वास है। यह कहानी लिखते समय मेरे रोएँ खड़े हो गए हैं क्योंकि यह कहानी मैं उस पंडीजी (बीरेंदर बाबा) के मुख से भी सुन रखी है।
-प्रभाकर पाण्डेय
हमारे तरफ गाँवों में जब खाटों (खटिया) में बहुत ही खटमल पड़ जाते हैं और खटमलमार दवा डालने के बाद भी वे नहीं मरते तो लोगों के पास इन रक्तचूषक प्राणियों से बचने का बस एक ही रास्ता बचता है और वह यह कि उस खटमली खाट को किसी तालाब, खंता (गड्ढा) आदि में पानी में डूबो दिया जाए। जब वह खटमली खाट 2-3 दिनतक पानी में ही छोड़ दी जाती है तो ये रक्तचूषक प्राणी या तो पानी में डूबकर मर जाते हैं या अपना रास्ता नाप लेते हैं और वह खाट पूरी तरह से खटमल-फ्री हो जाती है।
एकबार की बात है कि हमारे गाँव के ही एक पंडीजी एक गड्ढे (इस गड्ढे का निर्माण चिमनी के लिए ईंट पाथने के कारण हुआ है नहीं तो पहले यह समतल खेत हुआ करता था) में अपनी बँसखट (बाँस की खाट) को खटमल से निजात पाने के लिए डाल आए थे। बरसात के मौसम की अभी शुरुवात होने की वजह से इस गड्ढे में जाँघभर ही पानी था। यह गड्ढा गाँव के बाहर एक ऐसे बड़े बगीचे के पास है जिसमें बहुत सारी झाड़ियाँ उग आई हैं और इसको भयावह बना दी हैं साथ ही साथ यह गड्ढा भी बरसात में चारों ओर से मूँज आदि बड़े खर-पतवारों से ढक जाता है।
दो-तीन दिन के बाद वे पंडीजी अपनी बँसखट (बाँस की खाट) को लाने के लिए उस गड्ढे की ओर बढ़े। लगभग साम के 5 बज रहे थे और कुछ चरवाहे अपने पशुओं को लेकर गाँव की ओर प्रस्थान कर दिए थे पर अभी भी कुछ छोटे बच्चे और एक-दो महिलाएँ उस गड्ढे के पास के बगीचे में बकरियाँ आदि चरा रही थीं।
ऐसी बात नहीं है कि वे पंडीजी बड़े डेराभूत (डरनेवाले) हैं। वे तो बड़े ही निडर और मेहनती व्यक्ति हैं। रात-रात को वे अकेले ही गाँव से दूर अपने खेतों में सोया करते थे, सिंचाई किया करते थे। पर पता नहीं क्यों उस दिन उस पंडीजी के मन में थोड़ा भय व्याप्त था। अभी पहले यह कहानी पूरी कर लेते हैं फिर उस पंडीजी से ही जानने की कोशिश करेंगे कि उस दिन उनके मन में भय क्यों व्याप्त था?
उस गड्ढे के पास पहुँचकर जब पंडीजी अपनी बँसखट (बाँस की खाट) निकालने के लिए पानी में घुसे तो अचानक उनको लगा की कोई उनको पानी के अंदर खींचने की कोशिश कर रहा है पर वे तबतक हाथ में अपनी खाट को उठा चुके थे। अरे यह क्या इसके बाद वे कुछ कर न सके और न चाहते हुए भी थोड़ा और पानी के अंदर खींच लिए गए। अभी वे कुछ सोंचते तभी एक बुड़ुआ चिल्लाया, "अरे! तुम लोग देखते क्या हो टूट पड़ो नहीं तो यह बचकर निकल जाएगा और अब यह अकेले मेरे बस में नहीं आ रहा है।" तबतक एक और बुड़ुआ जो सूअर के रूप में था चिल्लाया, "हम इसको कैसे पकड़े, इसके कंधे से तो जनेऊ झूल रहा है।" इतना सुनते ही जो बुड़ुआ पंडीजी से हाथा-पाई करते हुए उन्हें पानी में खींचकर डूबाने की कोशिश कर रहा था वह फौरन ही हाथ बढ़ाकर उस पंडीजी के जनेऊ (यज्ञोपवीत) को खींचकर तोड़ दिया।
जनेऊ टूटते ही लगभग आधा दरजन बुड़ुआ जो पहले से ही वहाँ मौजूद थे उस पंडीजी पर टूट पड़े। अब पंडीजी की हिम्मत और बल दोनों जवाब देने लगे और बुड़ुआ बीस पड़ गए। बुड़ुआओं ने पंडीजी को और अंदर खींच लिया और उनको लगे वहीं पानी में धाँसने। पंडीजी और बुड़ुआओं के बीच ये जो सीन चल रहा था वह किसी बकरी के चरवाहे बच्चे ने देख लिया और चिल्लाया की बीरेंदर बाबा पानी में डूब रहे हैं। अब सभी बच्चे चिल्लाने लगे तबतक बुड़ुआओं ने पंडीजी (बीरेंदर बाबा) को उल्टाकर के कींचड़ में उनका सर धाँस दिया था और धाँसते ही चले जा रहे थे। पानी के ऊपर अब रह-रहकर पंडीजी (बीरेंदर बाबा) का पैर ही कभी-कभी दिखाई पड़ जाता था।
बच्चों की चिल्लाहट सुनकर तभी हमारे गाँव के श्री नेपाल सिंह वहाँ आ गए और एक-आध बड़े बच्चों के साथ गड्ढे में घुस गए। गड्ढे में घुसकर उन्होंने अचेत पंडीजी (बीरेंदर बाबा) को बाहर निकाला। पंडीजी के मुँह, कान, आँख और सर आदि में पूरी तरह से कीचड़ लगी हुई थी। अबतक आलम यह था कि हमारा लगभग आधा गाँव उस गड्ढे के पास जमा हो गया था। आनन-फानन में उस पंडीजी को नहलाया गया और खाट पर सुलाकर ही घर लाया गया। कुछ लोगों को लग रहा था कि पंडीजी अब बचेंगे नहीं पर अभी भी उनकी सँसरी (साँस) चल रही थी। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के डाक्टर आ चुके थे और पंडीजी का इलाज शुरु हो गया था। दो-तीन दिन तक पंडीजी (बीरेंदर बाबा) घर में खाट पर ही पड़े रहे और अक-बक बोलते रहे। 15-20 दिन के बाद धीरे-धीरे उनकी हालत में सुधार हुआ पर उनकी निडरता की वजह से उन पर इन दिनों में भूतों का छाया तो रहा पर कोई भूत (बुड़ुआ) उनपर हाबी नहीं हो पाया।
आज अगर कोई उस पंडीजी (बीरेंदर बाबा) से पूछता है कि उस दिन क्या हुआ था तो वे बताते हैं कि दरअसल इस घटना के लगभग एक हप्ते पहले से ही कुछ भूत उनके पीछे पड़ गए थे क्योंकि वे कई बार गाँव से दूर खेत-बगीचे आदि में सुर्ती या कलेवा आदि करते थे तो इन भूतों को नहीं चढ़ाते थे। इस कारण से कुछ भूत उनके पीछे ही लग गए थे जिसकी वजह से वे उन दिनों में थोड़ा डरे-सहमे हुए रहते थे।
पंडीजी आगे बताते हैं कि जो बुड़ुआ पहले उनको पकड़ा वह गुलाब (हमारे गाँव का ही एक ब्राह्मण कुमार जो एक बड़े पोखर में डूबकर मर गया था) था क्योंकि दूसरे किसी भी बुड़ुवे में मेरा जनेऊ तोड़ने की हिम्मत तो दूर पास आने की भी हिम्मत नहीं थी पर जब गुलाब (ब्राह्मण बुड़ुए का नाम) ने जनेऊ तोड़ दिया तो सभी बुड़ुओं ने हमला बोलकर मुझे धाँस दिया।
अगली कहानी में मैं गुलाब के डूबने और उसके बुड़ुआ बनने की बात बताऊँगा।
भूत-पिचास निकट नहीं आवें, महाबीर जब नाम सुनावें।
जय बजरंगबली, जय हनुमान।
ये कहानी सच्ची है या झूठी यह मुझे नहीं पता पर आज भी मेरे गाँव के लोग इस घटना को सत्य ही मानते हैं और उन लोगों की नजर में आज भी कुछ तालाबों में बुड़ुआओं का वास है। यह कहानी लिखते समय मेरे रोएँ खड़े हो गए हैं क्योंकि यह कहानी मैं उस पंडीजी (बीरेंदर बाबा) के मुख से भी सुन रखी है।
-प्रभाकर पाण्डेय
FRIDAY, SEPTEMBER 12, 2008
मझियावाले बाबा की जय
आइए, आपलोगों को एक बार फिर भूतों के साम्राज्य में ले चलता हूँ। भूतों से मिलवाता हूँ और एक सुनी हुई घटना सुनाता हूँ।
बात एही कोई साठ साल पहले की होगी। उस समय हमारे गाँव के लोग बाजार करने के लिए पथरदेवा या तरकुलवा जाते थे। वैसे आज भी हमारे गाँव के लोग बाजार करने के लिए पथरदेवा या तरकुलवा ही जाते थे पर अंतर सिर्फ इतना है कि आज लोग वाहनों से जाते हैं, पक्की सड़कों से जाते हैं पर उस समय उनको पैदल जाना पड़ता था और वह भी पगडंडियों से होकर। ये पगडंडियाँ भी सुनसान हुआ करती थीं और मूँज आदि छोटे-मोटे पौधों से कभी-कभी ढक जाती थीं। दोपहर और दिन डूबने के बाद तो इन पगडंडियों पर कभी-कभी ही कोई इक्के-दुक्के आदमी दिखाई दे जाते थे। इन पगडंडियों के अगल-बगल में कहीं-कहीं दूर तक फैले हुए खेत होते थे तो कहीं-कहीं भयावह, बियावान छोटे-मोटे जंगल या पुरखे-पुरनियों द्वारा लगाए हुए बाग-बगीचे।
उस समय हमारे गाँव से पथरदेवा लोग इसी प्रकार की एक पगडंडी से होकर जाते थे।
(हमारे गाँव से पथरदेवा की दूरी लगभग एक कोस है पर आज यह दूरी बहुत ही कम प्रतीत होती है क्योंकि सड़कों के निर्माण के साथ-साथ बीच-बीच में बहुत सारे भवनों का निर्माण भी हो गया है जिसके कारण हमारे गाँव से पथरदेवा के बीच छोटी-मोटी दुकानों से लदे कई स्थान बस गए हैं। आज-कल जंगलों आदि को काटकर समतल खेत भी बना दिए गए हैं। यानि सब मिला-जुलाकर कहूँ तो पथरदेवा हमारे गाँव से ही समझिए दिख रहा है।)
हाँ तो अब आगे की बात सुनाता हूँ।
एक बार की बात है कि हमारे गाँव के एक पंडीजी पथरदेवा, बाजार करने गए। दिन ढल चुका था और साम हो गई थी। उस समय पथरदेवा में ही वे किसी के घर चले गए और बात-चीत करने के बाद अपने घर के लिए चले। अब लगभग रात के ८-९बज चुके थे। जिस पगडंडी से होकर हमारे गाँव के लोग पथरदेवा आते-जाते थे वह पगडंडी एक बहुत ही घनी और भयावह बगीचे से होकर गुजरती थी। इस बगीचे में आम, महुआ, जामुन इत्यादि पेड़ों की बहुलता थी पर बीच-बीच में कहीं-कहीं बरगद जैसे बड़े पेड़ भी शोभायमान थे। इस बगीचे को मझियावाली बारी के नाम से जाना जाता था। आज भी इसका नाम वही है पर इसका अस्तित्व खतम होने की कगार पर है। (आज हम भले कहते फिरते हैं कि एक पेड़ सौ पुत्र समाना, पर मन का भाव रहता है, सौ काटो पर एक भी न लगाना।- शायद हमें पता नहीं की इन पेड़-पौधों की हत्याकर हम अपने वजूद को ही मिटाने पर लगे हैं।) जब हमारे गाँव के पंडीजी इस बगीचे में पहुँचे तो उनकी हिम्मत जवाब देने लगी, उनकी साँसे तेज और शरीर पसीने से तर-बतर। कारण यह था कि पगडंडी पर आगे भूत-प्रेतों का जमावड़ा था और वे चिक्का, कबड्डी आदि खेल खेलने में लगे हुए थे। उन भूत-प्रेतों के भयावह रूप, उनकी चीख-पुकार, मारपीट किसी भी हिम्मती और हनुमान-भक्त को भी मूर्छित करने के लिए पर्याप्त थी। अब हमारे गाँव के पंडीजी एक पेड़ की आड़ में खड़े होकर तेज साँसों से मन ही मन हनुमानजी को गोहराने लगे। तभी अचानक उनके कानों में खड़ाऊँ की चट-चट की आवाज सुनाई दी। धीरे-धीरे यह आवाज और तेज होने लगी और देखते ही देखते उनके पास एक स्वर्ण-शरीर का लंबा-चौड़ा व्यक्ति जो केवल एक सफेद धोती पहने हुए था और उसके कंधे से सफेद गमझा झूल रहा था, प्रकट हुआ। उसके ललाट का तेज उस अँधियारी रात में भी स्पष्ट दिख रहा था। उसको देखते ही हमारे गाँव के पंडीजी को कुछ हिम्मत बँधी। उस अलौकिक पुरुष ने पंडीजी से पूछा, "आपको डर लग रहा है क्या?" पंडीजी ने स्वाकारोक्ति में केवल अपनी मुंडी हिला दी। फिर उस अलौकिक पुरुष ने कहाँ, "डरने की कोई बात नहीं। आप आगे-आगे चलिए और मैं आपके पीछे-पीछे आपके गाँव तक आता हूँ।" उस अलौकिक पुरुष की इतनी बात सुनते ही पंडीजी तेज कदमों से पगडंडी पर चलने लगे और उनके पीछे-पीछे वही खड़ाऊँ की चट-चट की तेज आवाज। दूर-दूर तक भूत-प्रेतों का नामोनिशान नहीं और अब पंडीजी भी निडर मन से अपने मार्ग पर अग्रसर थे।
जब पंडीजी गाँव के पास पहुँच गए तो उस अलौकिक आत्मा ने पूछा, "अब आप चले जाएँगे न?" पंडीजी ने हाँ कहकर उस अलौकिक आत्मा को प्रणाम किया। पंडीजी के हाँ कहते ही खड़ाऊँ की आवाज पता नहीं कहाँ गायब हो गई और पंडीजी उस अलौकिक आत्मा का मन ही मन गुणगान करते हुए घर पहुँचे। जब यह बात उनके घर और गाँव-गड़ा के लोगों को पता चली तो सभी ने यही कहा कि वे मझियावाले बाबा थे। यानि उस बगीचे के देवता।
तो आप भी मेरे साथ बोलिए, मझियावाले बाबा की जय।
-प्रभाकर पाण्डेय
WEDNESDAY, JULY 2, 2008
हास्टलवाला भूत (श्रुति पर आधारित)
हमारे गाँव के पास ही एक स्नातकोत्तर महाविद्यालय है। इसकी गणना एक बहुत ही अच्छे शिक्षण संस्थान के रूप में होती है। दूर-दूर से बच्चे यहाँ शिक्षा-ग्रहण के लिए आते हैं।
7-8 साल पहले की बात है। बिहार का एक लड़का यहाँ हास्टल में रहकर पढ़ाई करता था। वह बहुत ही मेधावी और मिलनसार था। हास्टल में उसके साथ रहनेवाले अन्य बच्चे उसे दूबेभाई-दूबेभाई किया करते थे। एकबार की बात है कि वह अपने बड़े भाई की शादी में सम्मिलित होने के लिए 15 दिन के लिए गाँव गया। हास्टल के अन्य बच्चों ने उससे कहा कि दूबेभाई जल्दी ही वापस आ जाइएगा।
15 दिन के बाद वह लड़का फिर से आकर हास्टल में रहने लगा। लेकिन अब वह अपने दोस्तों से कम बात करता था। यहाँ तक कि वह उनके साथ खाना भी नहीं खाता था और कहता था कि बाद में खा लूँगा। अब वह पढ़ने में भी कम रुचि लेता था। जब उसके साथवाले बच्चे उससे कुछ बात करना चाहते थे तो वह टाल जाता था। वह दिनभर पता नहीं कहाँ रहता था और रात को केवल सोने के लिए हास्टल में आता था।
घर से हास्टल में आए उसे अभी एक हप्ते ही हुए थे कि एकदिन उसके कुछ घरवाले हास्टल में आए। सबके चेहरे उदासीन थे। एक लड़का उन लोगों से बोल पड़ा कि दूबेभाई तो अभी हैं नहीं, वे तो केवल रात को सोने आते हैं। उस लड़के की बात सुनकर दूबे के घरवाले फफककर रो पड़े और बोले वह रात को भी कैसे आ सकता है। हमलोग तो उसका सामान लेने आए हैं। अब वह नहीं रहा। हास्टल से जाने के दो दिन बाद ही वह मोटरसाइकिल से एक रिस्तेदार के वहाँ जा रहा था। उसकी मोटरसाइकिल एक तेज आती ट्रक से टकरा गई थी और वह आन स्पाट ही काल के गाल में समा गया था। इतना कहकर वे लोग और तेज रोने लगे।हास्टल के जो बच्चे ये बात सुन रहे थे उन्हे ठकुआ मार गया था और उनके रोएँ खड़े हो गए थे। वे बार-बार यही सोच रहे थे कि रात को जो लड़का उनके पास सोता था या जिसे वे देखते थे क्या वह दूबेभाई का भूत था।
खैर उस दिन के बाद दूबेभाई का भूत फिर कभी सोने के लिए हास्टल में नहीं आया पर कई महीनों तक हास्टल के सारे बच्चे खौफ में जीते रहे और दूबेभाई के रहनेवाले कमरे में ताला लटकता रहा।
लोग कहते रहे कि दूबेभाई को अपने हास्टल से बहुत ही लगाव था इसलिए स्वर्गीय होने के बाद भी वे हास्टल का मोह छोड़ न सके।
कहते हैं आज भी जो बच्चे दूबेभाई के भूत के साथ सोते थे डरे-सहमे ही रहते हैं।
यह घटना सही है या गलत; यह मैं नहीं कह सकता। क्योंकि मैंने यह घटना अपने क्षेत्र के कुछ लोगों से सुनी है।
खैर भगवान दूबेभाई की आत्मा को शांति और मोक्ष प्रदान करें।
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